"गीता 16:1" के अवतरणों में अंतर
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'''षोडशोऽध्याय:-''' | '''षोडशोऽध्याय:-''' | ||
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− | इस सोलहवें अध्याय में देवशब्द वाच्य परमेश्वर से संबंध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्गुणों और सदाचारों को, उन्हें जानकर धारण करने के लिये दैवीसम्पद् के नाम से और असुरों के जैसे दुर्गुण और दुराचारों का, उन्हें जानकर त्याग करने के लिये आसुरी सम्पद् के नाम से विभागपूर्वक विस्तृत वर्णन किया गया | + | इस सोलहवें अध्याय में देवशब्द वाच्य परमेश्वर से संबंध रखने वाले तथा उनको प्राप्त करा देने वाले सद्गुणों और सदाचारों को, उन्हें जानकर धारण करने के लिये दैवीसम्पद् के नाम से और असुरों के जैसे दुर्गुण और दुराचारों का, उन्हें जानकर त्याग करने के लिये आसुरी सम्पद् के नाम से विभागपूर्वक विस्तृत वर्णन किया गया है। इसलिये इस अध्याय का नाम 'दैवासुरसम्पद्विभागयोग' रखा गया है । |
'''प्रसंग-''' | '''प्रसंग-''' | ||
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− | सोलहवें अध्याय के पहले तीन श्लोकों द्वारा दैवी सम्पद् से युक्त सात्विक पुरुषों के स्वाभाविक लक्षणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाता है- | + | सोलहवें अध्याय के पहले तीन [[श्लोक|श्लोकों]] द्वारा दैवी सम्पद् से युक्त सात्विक पुरुषों के स्वाभाविक लक्षणों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया जाता है- |
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'''श्रीभगवान् बोले-''' | '''श्रीभगवान् बोले-''' | ||
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− | भय का सर्वथा अभाव, अन्त:करण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिये ध्यान योग में निरन्तर दृढ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान्, [[देवता]] और गुरुजनों की पूजा तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों को आचरण एवं < | + | भय का सर्वथा अभाव, अन्त:करण की पूर्ण निर्मलता, तत्त्वज्ञान के लिये ध्यान योग में निरन्तर दृढ स्थिति और सात्त्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवान्, [[देवता]] और गुरुजनों की [[पूजा]] तथा अग्निहोत्र आदि उत्तम कर्मों को आचरण एवं [[वेद]]<ref>वेद [[हिन्दू धर्म]] के प्राचीन पवित्र ग्रंथों का नाम है, इससे वैदिक संस्कृति प्रचलित हुई।</ref> -शास्त्रों का पठन-पाठन तथा भगवान् के नाम और गुणों, का कीर्तन, स्वधर्म पालन के लिये कष्ट सहन और शरीर तथा [[इन्द्रियाँ]] के सहित अन्त:करण की सरलता ।।1।। |
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+ | ==संबंधित लेख== | ||
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11:52, 6 जनवरी 2013 के समय का अवतरण
गीता अध्याय-16 श्लोक-1 / Gita Chapter-16 Verse-1
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख |
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