"गीता 6:1" के अवतरणों में अंतर
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− | पहले [[श्लोक]] में भगवान् ने कर्म फल का आश्रय न लेकर कर्म करने वाले को | + | पहले [[श्लोक]] में भगवान् ने कर्म फल का आश्रय न लेकर कर्म करने वाले को सन्न्यासी और योगी बतलाया। उस पर यह शंका हो सकती है कि यदि 'सन्न्यास' और 'योग' दोनों भिन्न-भिन्न स्थिति हैं तो उपर्युक्त साधक दोनों से संपन्न कैसे हो सकता हैं ? अत: इस शंका का निराकरण करने के लिये दूसरे श्लोक में 'सन्न्यास' और 'योग' की एकता का प्रतिपादन करते हैं- |
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<div align="center"> | <div align="center"> | ||
'''अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य: ।'''<br/> | '''अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति य: ।'''<br/> | ||
− | '''स | + | '''स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय: ।।1।।''' |
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'''श्रीभगवान् बोले-''' | '''श्रीभगवान् बोले-''' | ||
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− | जो पुरुष कर्म फल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह | + | जो पुरुष कर्म फल का आश्रय न लेकर करने योग्य कर्म करता है, वह सन्न्यासी तथा योगी है; और केवल अग्नि का त्याग करने वाला सन्न्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी नहीं है ।।1।। |
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− | य: = जो पुरुष; कर्मफलम् = कर्म के फल को; अनाश्रित: = न चाहता हुआ; कार्यम् = करने योग्य; करोति = करता है; स: = वह; च = और(केवल); निरग्नि: = अग्नि को त्यागवाला; ( | + | य: = जो पुरुष; कर्मफलम् = कर्म के फल को; अनाश्रित: = न चाहता हुआ; कार्यम् = करने योग्य; करोति = करता है; स: = वह; च = और(केवल); निरग्नि: = अग्नि को त्यागवाला; (सन्न्यासी योगी); न = नहीं हैं; अक्रिय: = क्रियाओं को त्यागने वाला; (भी सन्न्यासी योगी); |
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13:53, 2 मई 2015 का अवतरण
गीता अध्याय-6 श्लोक-1 / Gita Chapter-6 Verse-1
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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