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'''जैन धर्म''' [[भारत]] की श्रमण परम्परा से निकला [[धर्म]] और [[दर्शन]] है। 'जैन' उन्हें कहते हैं, जो 'जिन' के अनुयायी हों। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' माने-जीतना। 'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म। वस्त्र-हीन बदन, शुद्ध शाकाहारी भोजन और निर्मल वाणी एक जैन-अनुयायी की पहली पहचान होती है। यहाँ तक कि जैन धर्म के अन्य लोग भी शुद्ध शाकाहारी होते हैं तथा अपने धर्म के प्रति बड़े सचेत रहते हैं।  
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'''जैन धर्म''' [[भारत]] की श्रमण परम्परा से निकला [[धर्म]] और [[दर्शन]] है। 'जैन' उन्हें कहते हैं, जो 'जिन' के अनुयायी हों। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' यानी जीतना। 'जिन' अर्थात जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान का धर्म। वस्त्र-हीन बदन, शुद्ध शाकाहारी भोजन और निर्मल वाणी एक जैन-अनुयायी की पहली पहचान है। यहाँ तक कि जैन धर्म के अन्य लोग भी शुद्ध शाकाहारी भोजन ही ग्रहण करते हैं तथा अपने धर्म के प्रति बड़े सचेत रहते हैं।
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==प्राचीनता==
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जैन धर्म के अनुयायियों की मान्यता है कि उनका धर्म 'अनादि'<ref>अनंत समय पहले का</ref> और सनातन है। सामान्यत: लोगों में यह मान्यता है कि जैन सम्प्रदाय का मूल उन प्राचीन पंरपराओं में रहा होगा, जो [[आर्य|आर्यों]] के आगमन से पूर्व इस देश में प्रचलित थीं। किंतु यदि आर्यों के आगमन के बाद से भी देखा जाये तो [[ऋषभदेव]] और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा [[वेद|वेदों]] तक पहुँचती है। [[महाभारत]] के युद्ध के समय इस संप्रदाय के प्रमुख [[नेमिनाथ]] थे, जो जैन धर्म में मान्य [[तीर्थंकर]] हैं। ई. पू. आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका जन्म [[काशी]] (वर्तमान बनारस) में हुआ था। काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था। इन्हीं के नाम पर [[सारनाथ]] का नाम प्रचलित है। जैन धर्म में श्रमण संप्रदाय का पहला संगठन पार्श्वनाथ ने किया था। ये श्रमण वैदिक परंपरा के विरुद्ध थे। महावीर तथा बुद्ध के काल में ये श्रमण कुछ बौद्ध तथा कुछ जैन हो गए थे। इन दोनों ने अलग-अलग अपनी शाखाएँ बना लीं। भगवान महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे, जिनका जन्म लगभग ई. पू. 599 में हुआ और जिन्होंने 72 वर्ष की आयु में देहत्याग किया। महावीर स्वामी ने शरीर छोडऩे से पूर्व जैन धर्म की नींव काफ़ी मजबूत कर दी थी। अहिंसा को उन्होंने जैन धर्म में अच्छी तरह स्थापित कर दिया था। सांसारिकता पर विजयी होने के कारण वे 'जिन' (जयी) कहलाये। उन्हीं के समय से इस संप्रदाय का नाम 'जैन' हो गया।<ref>{{cite web |url=http://religion.bhaskar.com/2010/01/14/100114150506_jain_dharm_1.html|title=ऐसे जन्मा जैन धर्म|accessmonthday=26 फ़रवरी|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
 
==जैन अनुश्रुति==
 
==जैन अनुश्रुति==
 
[[मथुरा]] में विभिन्न कालों में अनेक जैन मूर्तियाँ मिली हैं, जो [[जैन संग्रहालय मथुरा|जैन संग्रहालय मथुरा]] में संग्रहीत हैं। अवैदिक धर्मों में जैन धर्म सबसे प्राचीन है, प्रथम तीर्थंकर भगवान [[ॠषभनाथ तीर्थंकर|ऋषभदेव]] माने जाते हैं। जैन धर्म के अनुसार भी ऋषभदेव का [[मथुरा]] से संबंध था। जैन धर्म की प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार नाभिराय के पुत्र भगवान ऋषभदेव के आदेश से [[इन्द्र]] ने 52 देशों की रचना की थी। [[शूरसेन]] देश और उसकी राजधानी मथुरा भी उन देशों में थी।<ref>जिनसेनाचार्य कृत महापुराण- पर्व 16,श्लोक 155</ref> जैन `हरिवंश पुराण' में [[प्राचीन भारत]] के जिन [[महाजनपद|18 महाराज्यों]] का उल्लेख हुआ है, उनमें शूरसेन और उसकी राजधानी मथुरा का नाम भी है। जैन मान्यता के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए थे।  
 
[[मथुरा]] में विभिन्न कालों में अनेक जैन मूर्तियाँ मिली हैं, जो [[जैन संग्रहालय मथुरा|जैन संग्रहालय मथुरा]] में संग्रहीत हैं। अवैदिक धर्मों में जैन धर्म सबसे प्राचीन है, प्रथम तीर्थंकर भगवान [[ॠषभनाथ तीर्थंकर|ऋषभदेव]] माने जाते हैं। जैन धर्म के अनुसार भी ऋषभदेव का [[मथुरा]] से संबंध था। जैन धर्म की प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार नाभिराय के पुत्र भगवान ऋषभदेव के आदेश से [[इन्द्र]] ने 52 देशों की रचना की थी। [[शूरसेन]] देश और उसकी राजधानी मथुरा भी उन देशों में थी।<ref>जिनसेनाचार्य कृत महापुराण- पर्व 16,श्लोक 155</ref> जैन `हरिवंश पुराण' में [[प्राचीन भारत]] के जिन [[महाजनपद|18 महाराज्यों]] का उल्लेख हुआ है, उनमें शूरसेन और उसकी राजधानी मथुरा का नाम भी है। जैन मान्यता के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए थे।  

11:00, 26 फ़रवरी 2013 का अवतरण

जैन तीर्थंकर, मथुरा
Jain Tirthankar, Mathura

जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। 'जैन' उन्हें कहते हैं, जो 'जिन' के अनुयायी हों। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' यानी जीतना। 'जिन' अर्थात जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान का धर्म। वस्त्र-हीन बदन, शुद्ध शाकाहारी भोजन और निर्मल वाणी एक जैन-अनुयायी की पहली पहचान है। यहाँ तक कि जैन धर्म के अन्य लोग भी शुद्ध शाकाहारी भोजन ही ग्रहण करते हैं तथा अपने धर्म के प्रति बड़े सचेत रहते हैं।

प्राचीनता

जैन धर्म के अनुयायियों की मान्यता है कि उनका धर्म 'अनादि'[1] और सनातन है। सामान्यत: लोगों में यह मान्यता है कि जैन सम्प्रदाय का मूल उन प्राचीन पंरपराओं में रहा होगा, जो आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में प्रचलित थीं। किंतु यदि आर्यों के आगमन के बाद से भी देखा जाये तो ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा वेदों तक पहुँचती है। महाभारत के युद्ध के समय इस संप्रदाय के प्रमुख नेमिनाथ थे, जो जैन धर्म में मान्य तीर्थंकर हैं। ई. पू. आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका जन्म काशी (वर्तमान बनारस) में हुआ था। काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था। इन्हीं के नाम पर सारनाथ का नाम प्रचलित है। जैन धर्म में श्रमण संप्रदाय का पहला संगठन पार्श्वनाथ ने किया था। ये श्रमण वैदिक परंपरा के विरुद्ध थे। महावीर तथा बुद्ध के काल में ये श्रमण कुछ बौद्ध तथा कुछ जैन हो गए थे। इन दोनों ने अलग-अलग अपनी शाखाएँ बना लीं। भगवान महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे, जिनका जन्म लगभग ई. पू. 599 में हुआ और जिन्होंने 72 वर्ष की आयु में देहत्याग किया। महावीर स्वामी ने शरीर छोडऩे से पूर्व जैन धर्म की नींव काफ़ी मजबूत कर दी थी। अहिंसा को उन्होंने जैन धर्म में अच्छी तरह स्थापित कर दिया था। सांसारिकता पर विजयी होने के कारण वे 'जिन' (जयी) कहलाये। उन्हीं के समय से इस संप्रदाय का नाम 'जैन' हो गया।[2]

जैन अनुश्रुति

मथुरा में विभिन्न कालों में अनेक जैन मूर्तियाँ मिली हैं, जो जैन संग्रहालय मथुरा में संग्रहीत हैं। अवैदिक धर्मों में जैन धर्म सबसे प्राचीन है, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव माने जाते हैं। जैन धर्म के अनुसार भी ऋषभदेव का मथुरा से संबंध था। जैन धर्म की प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार नाभिराय के पुत्र भगवान ऋषभदेव के आदेश से इन्द्र ने 52 देशों की रचना की थी। शूरसेन देश और उसकी राजधानी मथुरा भी उन देशों में थी।[3] जैन `हरिवंश पुराण' में प्राचीन भारत के जिन 18 महाराज्यों का उल्लेख हुआ है, उनमें शूरसेन और उसकी राजधानी मथुरा का नाम भी है। जैन मान्यता के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए थे।

एक प्रसंग

जीवंधर कुमार नाम के एक राजकुमार ने एक बार मरते हए कुत्ते को महामंत्र णमोकार मंत्र सुनाया जिससे उसकी आत्मा को बहुत शान्ति मिली और वह मरकर सुंदर देवता - यक्षेन्द्र हो गया। वहाँ जन्म लेते ही उसे याद आ गया कि मुझे एक राजकुमार ने महा मंत्र सुनाकर इस देवयोनि को दिलाया है, तब वह तुरंत अपने उपकारी राजकुमार के पास आया और उन्हें नमस्कार किया। राजकुमार तब तक उस कुत्ते को लिये बैठे हुए थे, देव ने उनसे कहे- राजन् ! मैं आपका बहुत अहसान मानता हूँ कि आपने मुझे इस योनि में पहुँचा दिया। जीवंधर कुमार यह दृश्य देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उसे सदैव उस महामंत्र को पढ़ने की प्रेरणा दी। देव ने उनसे कहा - स्वामिन् ! जब भी आपको कभी मेरी ज़रूरत लगे तो मुझे अवश्य याद करना और मुझे कुछ सेवा का अवसर अवश्य प्रदान करना। मैं आपका उपकार हमेशा स्मरण करूँगा। वह महामंत्र इस प्रकार है -

णमो अरिहंताणं।
णमो सिद्धाणं।
णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं।
णमो लोए सव्वसाहूणं॥

अर्थात- 'अरिहंतो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार।' जैन शास्त्रों के अनुसार हस्तिनापुर तीर्थ करोड़ों वर्ष प्राचीन माना गया है। श्री जिनसेनाचार्य द्वारा रचित आदिपुराण ग्रन्थ के अनुसार प्रथम तीर्थंकर भगवान रिषभदेव ने युग की आदि में यहाँ एक वर्ष के उपवास के पश्चात् राजा श्रेयांस के द्वारा जैन विधि से नवधा भक्ति पूर्वक पड़गाहन करने के बाद इक्षु रस का आहार ग्रहण किया था। उनकी स्मृति में वहाँ जम्बूद्वीप तीर्थ परिसर में उनकी आहार मुद्रा की प्रतिमा विराजमान हैं। उसके दर्शन करके भक्तगण प्राचीन इतिहास से परिचित होते हैं।

तीर्थंकर उपदेश

जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्म मार्ग से च्युत हो रहे जनसमुदाय को संबोधित किया और उसे धर्म मार्ग में लगाया। इसी से इन्हें 'धर्म मार्ग-मोक्ष मार्ग का नेता' और 'तीर्थ प्रवर्त्तक' अर्थात 'तीर्थंकर' कहा गया है। जैन सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य, प्रशस्त कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं।

  • आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है[4] कि 'बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना' अर्थात बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।[5]
  • इन तीर्थंकरों का वह उपदेश जिन शासन, जिनागम, जिनश्रुत, द्वादशांग, जिन प्रवचन आदि नामों से उल्लिखित किया गया है। उनके इस उपदेश को उनके प्रमुख एवं प्रतिभाशाली शिष्य विषयवार भिन्न-भिन्न प्रकरणों में निबद्ध या ग्रथित करते हैं। अतएव उसे 'प्रबंध' एवं 'ग्रन्थ' भी कहते हैं। उनके उपदेश को निबद्ध करने वाले वे प्रमुख शिष्य जैनवाङमय में गणधर कहे जाते हैं। ये गणधर अत्यन्त सूक्ष्मबुद्धि के धारक एवं विशिष्ट क्षयोपशम वाले होते हैं। उनकी धारणाशक्ति और स्मरणशक्ति असाधारण होती है।
जैन धर्म के 24 तीर्थंकर
क्र.सं. तीर्थकर का नाम
1. ॠषभनाथ तीर्थंकर
2. अजितनाथ
3. सम्भवनाथ
4. अभिनन्दननाथ
5. सुमतिनाथ
6. पद्मप्रभ
7. सुपार्श्वनाथ
8. चन्द्रप्रभ
9. पुष्पदन्त
10. शीतलनाथ
11. श्रेयांसनाथ
12. वासुपूज्य
13. विमलनाथ
14. अनन्तनाथ
15. धर्मनाथ
16. शान्तिनाथ
17. कुन्थुनाथ
18. अरनाथ
19. मल्लिनाथ
20. मुनिसुब्रनाथ
21. नमिनाथ
22. नेमिनाथ तीर्थंकर
23. पार्श्वनाथ तीर्थंकर
24. वर्धमान महावीर

तीर्थंकर

जैन धर्म में 24 तीर्थंकर माने गए हैं, जिन्हें इस धर्म में भगवान के समान माना जाता है।

ऋषभदेव

जैन तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं। जैन साहित्य में इन्हें प्रजापति, आदिब्रह्मा, आदिनाथ, बृहद्देव, पुरुदेव, नाभिसूनु और वृषभ नामों से भी समुल्लेखित किया गया है। युगारंभ में इन्होंने प्रजा को आजीविका के लिए कृषि[6], मसि[7], असि[8], शिल्प, वाणिज्य[9] और सेवा- इन षट्कर्मों (जीवनवृतियों) के करने की शिक्षा दी थी, इसलिए इन्हें ‘प्रजापति’[10], माता के गर्भ से आने पर हिरण्य (सुवर्ण रत्नों) की वर्षा होने से ‘हिरण्यगर्भ’[11], विमलसूरि-[12], दाहिने पैर के तलुए में बैल का चिह्न होने से ‘ॠषभ’, धर्म का प्रवर्तन करने से ‘वृषभ’[13], शरीर की अधिक ऊँचाई होने से ‘बृहद्देव’[14]एवं पुरुदेव, सबसे पहले होने से ‘आदिनाथ’[15] और सबसे पहले मोक्षमार्ग का उपदेश करने से ‘आदिब्रह्मा’[16]कहा गया है। ऋषभदेव के पिता का नाम नाभिराय होने से इन्हें ‘नाभिसूनु’ भी कहा गया है। इनकी माता का नाम मरुदेवी था।

नेमिनाथ तीर्थंकर

अवैदिक धर्मों में जैन धर्म सबसे प्राचीन है, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव माने जाते हैं। जैन धर्म के अनुसार भी ऋषभदेव का मथुरा से संबंध था। जैन धर्म में प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार, नाभिराय के पुत्र भगवान ऋषभदेव के आदेश से इन्द्र ने 52 देशों की रचना की थी। शूरसेन देश और उसकी राजधानी मथुरा भी उन देशों में थी। जैन `हरिवंश पुराण' में प्राचीन भारत के जिन 18 महाराज्यों का उल्लेख हुआ है, उनमें शूरसेन और उसकी राजधानी मथुरा का नाम भी है।

तीर्थंकर पार्श्वनाथ

अरिष्टेनेमि के एक हज़ार वर्ष बाद तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका जन्म वाराणसी में हुआ। इनके पिता राजा अश्वसेन और माता वामादेवी थीं। एक दिन कुमार पार्श्व वन-क्रीडा के लिए गंगा के किनारे गये। जहाँ एक तापसी पंचग्नितप कर रहा था। वह अग्नि में पुराने और पोले लक्कड़ जला रहा था। पार्श्व की पैनी दृष्टि उधर गयी और देखा कि उस लक्कड़ में एक नाग-नागिन का जोड़ा है और जो अर्धमृतक-जल जाने से मरणासन्न अवस्था में है। कुमार पार्श्व ने यह बात तापसी से कही। तापसी झुंझलाकर बोला- ‘इसमें कहाँ नाग-नागिन है? और जब उस लक्कड़ को फाड़ा, उसमें मरणासन्न नाग-नागिनी को देखा। पार्श्व ने ‘णमोकारमन्त्र’ पढ़कर उस नाग-नागिनी के युगल को संबोधा, जिसके प्रभाव से वह मरकर देव जाति से धरणेन्द्र पद्मावती हुआ।

महावीर

वर्धमान महावीर या महावीर, जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान श्री ऋषभनाथ[17] की परम्परा में 24वें तीर्थंकर थे। इनका जीवन काल 599 ईसवी ,ईसा पूर्व से 527 ईस्वी ईसा पूर्व तक माना जाता है। वर्धमान महावीर का जन्म एक क्षत्रिय राजकुमार के रूप में एक राजपरिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम राजा सिद्धार्थ एवं माता का नाम प्रियकारिणी था। उनका जन्म प्राचीन भारत के वैशाली राज्य, जो अब बिहार प्रान्त में है, हुआ था। वर्धमान महावीर का जन्मदिन समस्त भारत में महावीर जयन्ती के रूप में मनाया जाता है। दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों के अनुसार भगवान महावीर बिहार प्रांत के कुंडलपुर नगर में आज से 2612 वर्ष पूर्व महाराजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला के गर्भ से चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को जन्मे थे। वह कुंडलपुर वर्तमान में नालंदा ज़िले में अवस्थित है। वहाँ सन् 2002 में जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी अपने संघ के साथ पदविहार करके गईं और उनकी पावन प्रेरणा से कुंडलपुर में 2600 वर्ष प्राचीन नंद्यावर्त महल की प्रतिकृति का (7 मंज़िल ऊँचा) निर्माण हुआ। जिसे बिहार सरकार का पर्यटन विभाग पर्यटकों के लिए ख़ूब प्रचारित कर रहा है। अतः वहाँ प्रतिदिन पर्यटकों एवं तीर्थयात्रियों का ताँता लगा रहता है। कुंडलपुर में प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन बिहार सरकार एवं कुंडलपुर दिगंबर जैन समिति के द्वारा कुण्डलपुर महोत्सव आयोजित किया जाता है। इस वर्ष यह महोत्सव 23 अप्रैल 2013 को आयोजित किया जाएगा। इन्हें भी देखें: तीर्थंकर एवं तीर्थंकर उपदेश

भरत ऋषभदेव पुत्र

ऋषभदेव के पुत्र भरत बहुत धार्मिक थे। उनका विवाह विश्वरूप की कन्या पंचजनी से हुआ था। भरत के समय से ही अजनाभवर्ष नामक प्रदेश भारत कहलाने लगा था। राज्य-कार्य अपने पुत्रों को सौंपकर वे पुलहाश्रम में रहकर तपस्या करने लगे। एक दिन वे नदी में स्नान कर रहे थे। वहाँ एक गर्भवती हिरणी भी थी। शेर की दहाड़ सुनकर मृगी का नदी में गर्भपात हो गया और वह किसी गुफ़ा में छिपकर मर गयी। भरत ने नदी में बहते असहाय मृगशावक को पालकर बड़ा किया। उसके मोह से वे इतने आवृत्त हो गये कि अगले जन्म में मृग ही बने। मृग के प्रेम ने उनके वैराग्य मार्ग में व्याघात उत्पन्न किया था, किन्तु मृग के रूप में भी वे भगवत-भक्ति में लगे रहे तथा अपनी माँ को छोड़कर पुलहाश्रम में पहुँच गये। भरत ने अगला जन्म एक ब्राह्मण के घर में लिया। उन्हें अपने भूतपूर्व जन्म निरंतर याद रहे। ब्राह्मण उन्हें पढ़ाने का प्रयत्न करते-करते मर गया, किन्तु भरत की अध्ययन में रुचि नहीं थी।

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:-

  • निवृत्तिमार्ग
  • ईश्वर
  • सृष्टि
  • कर्म
  • त्रिरत्न
  • ज्ञान
  • स्याद्वाद या अनेकांतवाद या सप्तभंगी का सिद्धान्त
  • अनेकात्मवाद
  • निर्वाण
  • कायाक्लेश
  • नग्नता
  • पंचमहाव्रत
  • पंच अणुव्रत
  • अठारह पाप

वीथिका


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अनंत समय पहले का
  2. ऐसे जन्मा जैन धर्म (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 26 फ़रवरी, 2013।
  3. जिनसेनाचार्य कृत महापुराण- पर्व 16,श्लोक 155
  4. ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये।
    धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1
  5. आप्तपरीक्षा, कारिका 16
  6. खेती
  7. लिखना-पढ़ना, शिक्षण
  8. रक्षा हेतु तलवार, लाठी आदि चलाना
  9. विभिन्न प्रकार का व्यापार करना
  10. आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भुस्तोत्र, श्लोक 2|
  11. जिनसेन, महापुराण, 12-95
  12. पउमचरियं, 3-68|
  13. आ. समन्तभद्र, स्वयम्भू स्तोत्र, श्लोक 5|
  14. मदनकीर्ति, शासनचतुस्त्रिंशिका, श्लोक 6, संपा. डॉ. दरबारी लाल कोठिया।
  15. मानतुङ्ग, भक्तामर आदिनाथ स्तोत्र, श्लोक 1, 25 |
  16. मानतुङ्ग, भक्तामर आदिनाथ स्तोत्र, श्लोक 1, 25 |
  17. श्री आदिनाथ

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