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'''नागार्जुन बौद्धाचार्य''' (जन्म -150 ई; मृत्यु -लगभग 250 ई) भारतीय बौद्ध भिक्षु-दार्शनिक और माध्यमिक (मध्य मार्ग) मत के संस्थापक, जिनकी ‘शून्यता’ (ख़ालीपन) की अवधारणा के स्पष्टीकरण को उच्चकोटि की बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धि माना जाता है। बाद के कई बौद्ध मतों ने उन्हें प्राधि-धर्माध्यक्ष माना। दो मौलिक रचनाएं, जो काफ़ी हद तक उनकी हैं और [[संस्कृत]] में उपलब्ध रही- मूलमाध्यमिकाकारिका (सामान्यत: माध्यमिका कारिका के रूप में जानी जाती) तथा विग्रहव्यवर्तिनी हैं , जो अस्तित्व की उत्पत्ति, ज्ञान के साधन और यथार्थ के स्वरूप पर विचारों का विवेचनात्मक विश्लेषण हैं।
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==उनके जीवन का अनुश्रुत वर्णन==
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नागार्जुन की जीवन कथा का आंरभिक विवरण चीनी भाषा में उपलब्ध है, जिसे क़रीब 405 ई. में प्रसिद्ध बौद्ध अनुवादक कुमारजीव ने उपलब्ध कराया। यह अन्य चीनी एवं तिब्बती वृत्तांत से सहमत हैं कि नागार्जुन [[दक्षिण भारत]] में एक [[ब्राह्मण]] परिवार में जन्मे थे। एतिहासिक रूप से बचपन की उनकी कथाएं विवादास्प्रद हैं,लेकिन यह संकेत देती हैं कि उनके पास असाधारण बौद्धिक क्षमता थी तथा जब उन्होंने [[महायान]] [[बौद्ध धर्म]] के सिद्धांतों, जो इस समय पूर्वी [[एशिया]] में प्रचलित हैं, के गहन अर्थों को समझा, तब उनमें आध्यात्मिक परिवर्तन हुआ। कुमारजीव के वृत्तांत के अनुसार, नागार्जुन द्वारा बौद्ध धर्म के कुछ मूल विचार कुछ असंतुष्टि से सीखने के बाद एक 'महानाग बोधिसत्व' पर ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर एक प्रमुख नागराज<ref>अक्षरश: सर्प, पूर्वोत्तर भारत की एक पर्वतीय जाती का नाम भी</ref> ने दया दिखाई तथा उन्हें अत्यंत गूढ़ महायान श्लोकों के बारे में बताया। नागार्जुन ने कुछ ही समय में इनमें प्रवीणता हासिल की तथा [[भारत]] में सफलतापूर्वक सत्य ([[धर्म]]) का प्रचार किया और कई विरोधियों को बौद्धिक-दार्शनिक शास्त्रार्थ में परास्त किया। अनुश्रुत वृतांत यह भी संकेत देते हैं कि वह काफ़ी लंबी उम्र तक जिए तथा इसके बाद उन्होंने अपने जीवन का अंत करने का निर्णय लिया। विभिन्न वृत्तांत नागार्जुन के विभिन्न धार्मिक गुणों का वर्णन करते हैं तथा उनके जीवन का कालांकन 500 से अधिक वर्षों के दायरे में करते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि उपलब्ध संदर्भ कई व्यक्तियों के बारे में हो सकते हैं तथा इनमें कुछ काल्पनिक वृत्तांत भी शामिल होंगे। फिर भी नागार्जुन की जीवनी के विभिन्न तत्वों की पुष्टि एतिहासिक साम्रग्री से होती है। वर्तमान विद्वान संकेत देते हैं कि नागार्जुन 50 ई. और 280 ई. किसी अवधि में रहे होंगे। एक आम राय के मुताबिक़, उनका कालांकन 150-250 ई. है। कुछ पुरातात्विक सबूत : उनके द्वारा सातवाहन वंश के एक राजा, संभवत: यज्ञश्री (173-202) को लिखा एक पत्र (सुहारिल्लेख, ‘मैत्रिपूर्ण पत्र’) इस दावे की पुष्टि करता है कि वह [[दक्षिण भारत]] में रहते थे।
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==प्रभाव एवं रचानाएं==
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नागार्जुन का प्रभाव [[बौद्ध धर्म]] के माध्यमिक मत के अनुयायियों के ज़रिये जारी रहा। उनकी दार्शनिक स्थितियों की विवेचनात्मक पड़ताल तथा उपदेशात्मक व्याख्या का अध्ययन अब भी कई पूर्वी एशियाई मतों में चीनी बौद्ध धर्मशास्त्र (ता-त्सांग चिंग) के अंग के रूप में किया जाता है। इसी प्रकार तिब्बती बौद्ध धर्मशास्त्र के अंग की तरह बस्तान-ग्यूर में 17 माध्यमिका शोध प्रबंध हैं। इनमें से सभी प्रबंधों का श्रेय नागार्जुन को नहीं दिया और पारंपरिक तौर पर जिनका श्रेय उनको दिया जाता है, संभवत: वे भी उन्होंने नहीं लिखे हैं। दो मूल रचनाएं,जो काफ़ी हद तक उनकी हैं, इस समय संस्कृत में उपलब्ध हैं; वे हैं- ''मूलमाध्यमिकाकारिका'' (माध्यमिका कारिका,’ मध्यम मार्ग के मूल सिद्धांत’) और ''विग्रहव्यवर्तनी'' (वाद-विवाद का निवारण), दोंनो सत्ता की उत्पत्ति, ज्ञान के साधन, तथा यथार्थ के स्वरूप के बारे में असत्य विचारों का विवेचनात्मक विश्लेषण है। जिन तीन महत्त्वपूर्ण, माध्यमिका रचनाओं का श्रेय नागार्जुन को दिया जाता है वे वर्तमान में केवल चीनी भाषा में उपलब्ध हैं, ''ता-चिह-तू-लुन'' (महाप्रज्ञपारमिता-शास्त्र, 'प्रज्ञा शोध प्रबंधों की महान पराकाषठा'), ''शी-चू-पी-पा-शा-लुन'' (दशमूमि-विभाष-शास्त्र, ’10 स्तरीय ग्रंथों की आभा'), तथा ''शिन-एर्ह-मेन-लुक'' (द्वादश-द्वार {निकाय} -शास्त्र, '12 प्रवेश मार्ग ग्रंथ') निम्नलिखित रचनाएं केवल तिब्बती धर्मशास्त्र में मिलती हैं तथा कई विद्वान इन्हें नागार्जुन की रचनाएं मानते हैं : ''रिग्स पा द्रग का पाही त्सिग लेहुर व्यास पा शेस ब्या बा'' (युक्ति-षष्टिका, 'संयोजन पर 60 छंद'), ''तोन पा निद दुन कु पाही त्सिग लेहूर ब्यास पा शेस ब्या बा'' (शुन्यता-सप्तति, 'शून्यता पर 70 छंद') और ''शिब भो नम्पर ह्तग पा शेस ब्या बहि म्दो'' (वैदालया-सूत्र, 'वैदालया श्रेणी का पवित्र ग्रंथ')।
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माध्यमिक विश्लेषण के [[श्लोक|श्लोकों]] के अलावा तिब्बती अनुश्रुति ने कई तांत्रिक (जादुई) एवं चिकित्सा रचनाओं का श्रेय किसी 'नागार्जुन' को दिया है। बाद की भारतीय रचनाओं में नागार्जुन नाम के एक महान सिद्ध या तांत्रिक का ज़िक्र है, जिन्होंने तांत्रिक आचरण, यानी चमत्कारी मंत्रों एवं मंडलों की मदद से जादुई शक्तियां प्राप्त की तथा नियंत्रित आहार और औषधि से अस्तित्व की अभौतिकीय अगत तक पहुंचे। इन कथाओं के साथ एक शक्तिशाली कीमियागर की कहानी भी संबद्ध है, जिन्होंने अन्य उपलब्धियों के आलावा अमरता का अमृत खोज निकाला था। ठोस ऐतिहासिक आंकड़ों के अभाव तथा परस्पर विरोधी वृत्तांतों दूसरी सदी के इस दार्शनिक पर लागू नहीं माना जाता है।
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माध्यमिक दार्शनिक के जीवन एवं दृष्टिकोण के बारे में कुछ जानकारी नागार्जुन की रचनाओं से भी मिल सकती है। उनके विवेचनात्मक विश्लेषणात्मक काव्यों और उनके उपदेशात्मक प्रबंध, पत्र एवं श्लोक लोंगो के साथ विनियोजन में ‘अनासक्ति’ (यानि सभी चीजों की शून्यता का बोध करना और इसलिए उनसे निर्लिप्त होना) को व्यवहार में लाने के प्रति अनेक गहरे सरोकार का संकेत देते हैं। दुरूह तर्क के ज़रिये, जैसा माध्यमिका कारिका में है, उन्होंने अस्तित्व के बारे में [[हिंदू]] एवं [[बौद्ध]] दृष्टिकोणों की आलोचना की हैं। लेकिन उनके अधिकतर शास्त्रार्थ स्थविरवाद और सर्वास्तिवाद के बौद्ध मतों द्वारा प्रस्तातिव अस्तित्व की व्याख्या के प्रयास थे। नागार्जुन की स्थिती प्रारंभिक महायान साहित्य के ''प्रज्ञापारमिता-सूत्र'' (प्रज्ञा श्लोकों की पराकाष्ठा) से घनिष्ठ रूप से संबद्ध और संभवत: निर्भर है, जिसमें 'शून्य' का विचार ज्ञान के मार्ग पर चलने वालों से लिए महत्त्वपूर्ण था और माध्यमिका मत में विशिष्ट शब्द बन गया।
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यह विचार बताता है कि अस्तित्व का स्वरूप संबंधात्मक है : कोई आत्मा नहीं है, कुछ नहीं है तथा इसके संदर्भ में स्वतंत्र कोई अवधारणा नहीं है; सभी चीज़े किसी से रिक्त हैं तथा केवल परिस्थिती के संदर्भ में विद्यमान हैं। परिवर्तनशील स्वरूपों के पीछे कोई शाश्वत सत्य नहीं है; यहां तक कि बिना किसी बंधन के निर्वाण (ज्ञान-प्राप्ति) भी अस्तित्व के बदलते स्वरूप से स्वतंत्र नहीं है। जिन व्यक्तियों ने ज्ञान में पूर्णता प्राप्त कर ली है, उन्हें निर्वाण एवं अस्तित्व के परिवर्तनशील प्रवाह का एक साथ बौद्ध होता है। यह पूर्णता उन दूसरी 'पूर्णताओं' को रुपांतरित करती है, जो बोधिसत्व (भावी बुद्ध) के मार्ग के अंग हैं, जैसे नैतिकता, सहनशीलता एवं ध्यान। विवेक की पराकाष्ठा पूर्णता के लिए प्रयासरत उत्साही व्यक्ति को पूर्णता की आसक्ति तक से मुक्ति दिला देती है, उस 'पूर्णता' से, जिसमें उसे क्षण के संबंधात्मक स्वरूप का बोध नहीं होता । अत: विवेक को करुणा से पृथक न करने वाले नागार्जुन के दृष्टिकोण से विद्वतापूर्ण शास्त्रार्थ में हिस्सा लेना, बुद्ध की शिक्षाओं की व्याख्या लिखना तथा श्लोकों में माया एवं पीड़ा से मुक्ति की प्रशंसा करना परम सत्य (धर्म) अनुकूल माने जाते हैं।
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==मतानुसार==
 
*[[हुएन-सांग|ह्रेनसांग]] के अनुसार [[अश्वघोष]], नागार्जुन, [[आर्यदेव बौद्धाचार्य|आर्यदेव]] और कुमारलब्ध (कुमारलात) समकालीन थे।  
 
*[[हुएन-सांग|ह्रेनसांग]] के अनुसार [[अश्वघोष]], नागार्जुन, [[आर्यदेव बौद्धाचार्य|आर्यदेव]] और कुमारलब्ध (कुमारलात) समकालीन थे।  
*राजतंरगिणी और तारानाथ के मतानुसार नागार्जुन [[कनिष्क]] के काल में पैदा हुए थे। नागार्जुन के काल के बारे में इतने मत-मतान्तर हैं कि कोई निश्चित समय सिद्ध कर पाना अत्यन्त कठिन है, फिर भी ई.पू. प्रथम शताब्दी से ईस्वीय प्रथम-द्वितीय शताब्दी के बीच कहीं उनका समय होना चाहिए। कुमारजीव ने 405 ई. के लगभग चीनी भाषा में नागार्जुन की जीवनी का अनुवाद किया था। ये दक्षिण [[भारत]] के [[विदर्भ]] प्रदेश में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। वे ज्योतिष, आयुर्वेद, [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] एवं तन्त्र आदि विद्याओं में अत्यन्त निपुण थे और प्रसिद्ध सिद्ध तान्त्रिक थे।  
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*राजतंरगिणी और तारानाथ के मतानुसार नागार्जुन [[कनिष्क]] के काल में पैदा हुए थे। नागार्जुन के काल के बारे में इतने मत-मतान्तर हैं कि कोई निश्चित समय सिद्ध कर पाना अत्यन्त कठिन है, फिर भी ई.पू. प्रथम शताब्दी से ईस्वीय प्रथम-द्वितीय शताब्दी के बीच कहीं उनका समय होना चाहिए। कुमारजीव ने 405 ई. के लगभग चीनी भाषा में नागार्जुन की जीवनी का अनुवाद किया था। ये दक्षिण [[भारत]] के [[विदर्भ]] प्रदेश में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। वे ज्योतिष, [[आयुर्वेद]], [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] एवं [[तन्त्र]] आदि विद्याओं में अत्यन्त निपुण थे और प्रसिद्ध सिद्ध तान्त्रिक थे।  
*प्रज्ञापारमितासूत्रों के आधार पर उन्होंने [[माध्यमिक दर्शन]] का प्रवर्तन किया था। कहा जाता है कि उनके काल में प्रज्ञापारमितासूत्र जम्बूद्वीप में अनुपलब्ध थे। उन्होंने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त किया तथा उन सूत्रों के दर्शन पक्ष को माध्यमिक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।  
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*[[प्रज्ञापारमितासूत्र|प्रज्ञापारमितासूत्रों]] के आधार पर उन्होंने [[माध्यमिक दर्शन]] का प्रवर्तन किया था। कहा जाता है कि उनके काल में प्रज्ञापारमितासूत्र [[जम्बूद्वीप]] में अनुपलब्ध थे। उन्होंने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त किया तथा उन सूत्रों के दर्शन पक्ष को माध्यमिक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।  
*अस्तित्व का विश्लेषण दर्शनों का प्रमुख विषय रहा है। भारतवर्ष में इसी के विश्लेषण में दर्शनों का अभूतपूर्व विकास हुआ है। [[उपनिषद]]-धारा में आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त तथा बौद्ध-धारा में आचार्य नागार्जुन का शून्याद्वयवाद शिखरायमाण है। परस्पर के वाद-विवाद ने इन दोनों धाराओं के दर्शनों को उत्कर्ष की पराकाष्ठा तक पहुंचाया है। यद्यपि आचार्य शंकर का काल नागार्जुन से बहुत बाद का है, फिर भी नागार्जुन के समय औपनिषदिक धारा के अस्तित्व का अपलाप नहीं किया जा सकता, किन्तु उसकी व्याख्या आचार्य शंकर की व्याख्या से निश्चित ही भिन्न रही होगी। आचार्य नागार्जुन के आविर्भाव के बाद भारतीय दार्शनिक चिन्तन में नया मोड़ आया। उसमें नई गति एवं प्रखरता का प्रादुर्भाव हुआ। वस्तुत: नागार्जुन के बाद ही भारतवर्ष में यथार्थ दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ हुआ। नागार्जुन ने जो मत स्थापित किया, उसका प्राय: सभी [[बौद्ध]]-बौद्धेतर दर्शनों पर व्यापक प्रभाव पड़ा और उसी के खण्डन-मण्डन में अन्य दर्शनों ने अपने को चरितार्थ किया।  
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*अस्तित्व का विश्लेषण दर्शनों का प्रमुख विषय रहा है। [[भारतवर्ष]] में इसी के विश्लेषण में दर्शनों का अभूतपूर्व विकास हुआ है। [[उपनिषद]]-धारा में आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त तथा बौद्ध-धारा में आचार्य नागार्जुन का शून्याद्वयवाद शिखरायमाण है। परस्पर के वाद-विवाद ने इन दोनों धाराओं के दर्शनों को उत्कर्ष की पराकाष्ठा तक पहुंचाया है। यद्यपि आचार्य शंकर का काल नागार्जुन से बहुत बाद का है, फिर भी नागार्जुन के समय औपनिषदिक धारा के अस्तित्व का अपलाप नहीं किया जा सकता, किन्तु उसकी व्याख्या आचार्य शंकर की व्याख्या से निश्चित ही भिन्न रही होगी। आचार्य नागार्जुन के आविर्भाव के बाद भारतीय दार्शनिक चिन्तन में नया मोड़ आया। उसमें नई गति एवं प्रखरता का प्रादुर्भाव हुआ। वस्तुत: नागार्जुन के बाद ही भारतवर्ष में यथार्थ दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ हुआ। नागार्जुन ने जो मत स्थापित किया, उसका प्राय: सभी [[बौद्ध]]-बौद्धेतर दर्शनों पर व्यापक प्रभाव पड़ा और उसी के खण्डन-मण्डन में अन्य दर्शनों ने अपने को चरितार्थ किया।  
 
*नागार्जुन के मतानुसार वस्तु की परमार्थत: सत्ता का एक 'शाश्वत अन्त' है तथा व्यवहारत: असत्ता दूसरा 'उच्छेद अन्त' है। इन दोनों अन्तों का परिहास कर वे अपना अनूठा मध्यम मार्ग प्रकाशित करते हैं। उनके अनुसार परमार्थत: 'भाव' नहीं है तथा व्यवहारत: या संवृत्तित: 'अभाव' भी नहीं है। यही नागार्जुन का मध्यम मार्ग या [[माध्यमिक दर्शन]] है। इस मध्यम मार्ग की व्यवस्था उन्होंने अन्य बौद्धों की भाँति प्रतीत्यसमुत्पाद की अपनी विशिष्ट व्याख्या के आधार पर की है। वे 'प्रतीत्य' शब्द द्वारा शाश्वत अन्त का तथा 'समुत्पाद' शब्द द्वारा उच्छेद अन्त का परिहास करते हैं और शून्यतादर्शन की स्थापना करते हैं।  
 
*नागार्जुन के मतानुसार वस्तु की परमार्थत: सत्ता का एक 'शाश्वत अन्त' है तथा व्यवहारत: असत्ता दूसरा 'उच्छेद अन्त' है। इन दोनों अन्तों का परिहास कर वे अपना अनूठा मध्यम मार्ग प्रकाशित करते हैं। उनके अनुसार परमार्थत: 'भाव' नहीं है तथा व्यवहारत: या संवृत्तित: 'अभाव' भी नहीं है। यही नागार्जुन का मध्यम मार्ग या [[माध्यमिक दर्शन]] है। इस मध्यम मार्ग की व्यवस्था उन्होंने अन्य बौद्धों की भाँति प्रतीत्यसमुत्पाद की अपनी विशिष्ट व्याख्या के आधार पर की है। वे 'प्रतीत्य' शब्द द्वारा शाश्वत अन्त का तथा 'समुत्पाद' शब्द द्वारा उच्छेद अन्त का परिहास करते हैं और शून्यतादर्शन की स्थापना करते हैं।  
*नागार्जुन के नाम पर अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें  
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*नागार्जुन के नाम पर अनेक [[ग्रन्थ]] उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें  
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#वैदल्यसूत्र प्रमुख हैं।
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#वैदल्यसूत्र  
 
*इनमें मूलमाध्यमिककारिका शरीर स्थानीय है तथा अन्य ग्रन्थ उसी के अवयव या पूरक के रूप में माने जाते हैं। कहा जाता है कि उन्होंने मूलामाध्यमिककारिका पर 'अकुतोभया' नाम की वृत्ति लिखी थी, किन्तु अन्य साक्ष्यों के प्रकाश में आने पर अब यह मत विद्वानों में मान्य नहीं है। इसके अतिरिक्त सुहृल्लेख एवं सूत्रसमुच्चय आदि भी उनकी कृतियाँ हैं।  
 
*इनमें मूलमाध्यमिककारिका शरीर स्थानीय है तथा अन्य ग्रन्थ उसी के अवयव या पूरक के रूप में माने जाते हैं। कहा जाता है कि उन्होंने मूलामाध्यमिककारिका पर 'अकुतोभया' नाम की वृत्ति लिखी थी, किन्तु अन्य साक्ष्यों के प्रकाश में आने पर अब यह मत विद्वानों में मान्य नहीं है। इसके अतिरिक्त सुहृल्लेख एवं सूत्रसमुच्चय आदि भी उनकी कृतियाँ हैं।  
*भारतीय बौद्ध आचार्यों का कृतियों का तिब्बत के 'तन-ग्युर' नामक संग्रह में संकलन किया गया है।
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*भारतीय बौद्ध आचार्यों का कृतियों का [[तिब्बत]] के 'तन-ग्युर' नामक संग्रह में संकलन किया गया है।
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06:43, 4 अप्रैल 2012 का अवतरण

नागार्जुन बौद्धाचार्य (जन्म -150 ई; मृत्यु -लगभग 250 ई) भारतीय बौद्ध भिक्षु-दार्शनिक और माध्यमिक (मध्य मार्ग) मत के संस्थापक, जिनकी ‘शून्यता’ (ख़ालीपन) की अवधारणा के स्पष्टीकरण को उच्चकोटि की बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धि माना जाता है। बाद के कई बौद्ध मतों ने उन्हें प्राधि-धर्माध्यक्ष माना। दो मौलिक रचनाएं, जो काफ़ी हद तक उनकी हैं और संस्कृत में उपलब्ध रही- मूलमाध्यमिकाकारिका (सामान्यत: माध्यमिका कारिका के रूप में जानी जाती) तथा विग्रहव्यवर्तिनी हैं , जो अस्तित्व की उत्पत्ति, ज्ञान के साधन और यथार्थ के स्वरूप पर विचारों का विवेचनात्मक विश्लेषण हैं।

उनके जीवन का अनुश्रुत वर्णन

नागार्जुन की जीवन कथा का आंरभिक विवरण चीनी भाषा में उपलब्ध है, जिसे क़रीब 405 ई. में प्रसिद्ध बौद्ध अनुवादक कुमारजीव ने उपलब्ध कराया। यह अन्य चीनी एवं तिब्बती वृत्तांत से सहमत हैं कि नागार्जुन दक्षिण भारत में एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। एतिहासिक रूप से बचपन की उनकी कथाएं विवादास्प्रद हैं,लेकिन यह संकेत देती हैं कि उनके पास असाधारण बौद्धिक क्षमता थी तथा जब उन्होंने महायान बौद्ध धर्म के सिद्धांतों, जो इस समय पूर्वी एशिया में प्रचलित हैं, के गहन अर्थों को समझा, तब उनमें आध्यात्मिक परिवर्तन हुआ। कुमारजीव के वृत्तांत के अनुसार, नागार्जुन द्वारा बौद्ध धर्म के कुछ मूल विचार कुछ असंतुष्टि से सीखने के बाद एक 'महानाग बोधिसत्व' पर ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर एक प्रमुख नागराज[1] ने दया दिखाई तथा उन्हें अत्यंत गूढ़ महायान श्लोकों के बारे में बताया। नागार्जुन ने कुछ ही समय में इनमें प्रवीणता हासिल की तथा भारत में सफलतापूर्वक सत्य (धर्म) का प्रचार किया और कई विरोधियों को बौद्धिक-दार्शनिक शास्त्रार्थ में परास्त किया। अनुश्रुत वृतांत यह भी संकेत देते हैं कि वह काफ़ी लंबी उम्र तक जिए तथा इसके बाद उन्होंने अपने जीवन का अंत करने का निर्णय लिया। विभिन्न वृत्तांत नागार्जुन के विभिन्न धार्मिक गुणों का वर्णन करते हैं तथा उनके जीवन का कालांकन 500 से अधिक वर्षों के दायरे में करते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि उपलब्ध संदर्भ कई व्यक्तियों के बारे में हो सकते हैं तथा इनमें कुछ काल्पनिक वृत्तांत भी शामिल होंगे। फिर भी नागार्जुन की जीवनी के विभिन्न तत्वों की पुष्टि एतिहासिक साम्रग्री से होती है। वर्तमान विद्वान संकेत देते हैं कि नागार्जुन 50 ई. और 280 ई. किसी अवधि में रहे होंगे। एक आम राय के मुताबिक़, उनका कालांकन 150-250 ई. है। कुछ पुरातात्विक सबूत : उनके द्वारा सातवाहन वंश के एक राजा, संभवत: यज्ञश्री (173-202) को लिखा एक पत्र (सुहारिल्लेख, ‘मैत्रिपूर्ण पत्र’) इस दावे की पुष्टि करता है कि वह दक्षिण भारत में रहते थे।

प्रभाव एवं रचानाएं

नागार्जुन का प्रभाव बौद्ध धर्म के माध्यमिक मत के अनुयायियों के ज़रिये जारी रहा। उनकी दार्शनिक स्थितियों की विवेचनात्मक पड़ताल तथा उपदेशात्मक व्याख्या का अध्ययन अब भी कई पूर्वी एशियाई मतों में चीनी बौद्ध धर्मशास्त्र (ता-त्सांग चिंग) के अंग के रूप में किया जाता है। इसी प्रकार तिब्बती बौद्ध धर्मशास्त्र के अंग की तरह बस्तान-ग्यूर में 17 माध्यमिका शोध प्रबंध हैं। इनमें से सभी प्रबंधों का श्रेय नागार्जुन को नहीं दिया और पारंपरिक तौर पर जिनका श्रेय उनको दिया जाता है, संभवत: वे भी उन्होंने नहीं लिखे हैं। दो मूल रचनाएं,जो काफ़ी हद तक उनकी हैं, इस समय संस्कृत में उपलब्ध हैं; वे हैं- मूलमाध्यमिकाकारिका (माध्यमिका कारिका,’ मध्यम मार्ग के मूल सिद्धांत’) और विग्रहव्यवर्तनी (वाद-विवाद का निवारण), दोंनो सत्ता की उत्पत्ति, ज्ञान के साधन, तथा यथार्थ के स्वरूप के बारे में असत्य विचारों का विवेचनात्मक विश्लेषण है। जिन तीन महत्त्वपूर्ण, माध्यमिका रचनाओं का श्रेय नागार्जुन को दिया जाता है वे वर्तमान में केवल चीनी भाषा में उपलब्ध हैं, ता-चिह-तू-लुन (महाप्रज्ञपारमिता-शास्त्र, 'प्रज्ञा शोध प्रबंधों की महान पराकाषठा'), शी-चू-पी-पा-शा-लुन (दशमूमि-विभाष-शास्त्र, ’10 स्तरीय ग्रंथों की आभा'), तथा शिन-एर्ह-मेन-लुक (द्वादश-द्वार {निकाय} -शास्त्र, '12 प्रवेश मार्ग ग्रंथ') निम्नलिखित रचनाएं केवल तिब्बती धर्मशास्त्र में मिलती हैं तथा कई विद्वान इन्हें नागार्जुन की रचनाएं मानते हैं : रिग्स पा द्रग का पाही त्सिग लेहुर व्यास पा शेस ब्या बा (युक्ति-षष्टिका, 'संयोजन पर 60 छंद'), तोन पा निद दुन कु पाही त्सिग लेहूर ब्यास पा शेस ब्या बा (शुन्यता-सप्तति, 'शून्यता पर 70 छंद') और शिब भो नम्पर ह्तग पा शेस ब्या बहि म्दो (वैदालया-सूत्र, 'वैदालया श्रेणी का पवित्र ग्रंथ')।

माध्यमिक विश्लेषण के श्लोकों के अलावा तिब्बती अनुश्रुति ने कई तांत्रिक (जादुई) एवं चिकित्सा रचनाओं का श्रेय किसी 'नागार्जुन' को दिया है। बाद की भारतीय रचनाओं में नागार्जुन नाम के एक महान सिद्ध या तांत्रिक का ज़िक्र है, जिन्होंने तांत्रिक आचरण, यानी चमत्कारी मंत्रों एवं मंडलों की मदद से जादुई शक्तियां प्राप्त की तथा नियंत्रित आहार और औषधि से अस्तित्व की अभौतिकीय अगत तक पहुंचे। इन कथाओं के साथ एक शक्तिशाली कीमियागर की कहानी भी संबद्ध है, जिन्होंने अन्य उपलब्धियों के आलावा अमरता का अमृत खोज निकाला था। ठोस ऐतिहासिक आंकड़ों के अभाव तथा परस्पर विरोधी वृत्तांतों दूसरी सदी के इस दार्शनिक पर लागू नहीं माना जाता है।

माध्यमिक दार्शनिक के जीवन एवं दृष्टिकोण के बारे में कुछ जानकारी नागार्जुन की रचनाओं से भी मिल सकती है। उनके विवेचनात्मक विश्लेषणात्मक काव्यों और उनके उपदेशात्मक प्रबंध, पत्र एवं श्लोक लोंगो के साथ विनियोजन में ‘अनासक्ति’ (यानि सभी चीजों की शून्यता का बोध करना और इसलिए उनसे निर्लिप्त होना) को व्यवहार में लाने के प्रति अनेक गहरे सरोकार का संकेत देते हैं। दुरूह तर्क के ज़रिये, जैसा माध्यमिका कारिका में है, उन्होंने अस्तित्व के बारे में हिंदू एवं बौद्ध दृष्टिकोणों की आलोचना की हैं। लेकिन उनके अधिकतर शास्त्रार्थ स्थविरवाद और सर्वास्तिवाद के बौद्ध मतों द्वारा प्रस्तातिव अस्तित्व की व्याख्या के प्रयास थे। नागार्जुन की स्थिती प्रारंभिक महायान साहित्य के प्रज्ञापारमिता-सूत्र (प्रज्ञा श्लोकों की पराकाष्ठा) से घनिष्ठ रूप से संबद्ध और संभवत: निर्भर है, जिसमें 'शून्य' का विचार ज्ञान के मार्ग पर चलने वालों से लिए महत्त्वपूर्ण था और माध्यमिका मत में विशिष्ट शब्द बन गया।

यह विचार बताता है कि अस्तित्व का स्वरूप संबंधात्मक है : कोई आत्मा नहीं है, कुछ नहीं है तथा इसके संदर्भ में स्वतंत्र कोई अवधारणा नहीं है; सभी चीज़े किसी से रिक्त हैं तथा केवल परिस्थिती के संदर्भ में विद्यमान हैं। परिवर्तनशील स्वरूपों के पीछे कोई शाश्वत सत्य नहीं है; यहां तक कि बिना किसी बंधन के निर्वाण (ज्ञान-प्राप्ति) भी अस्तित्व के बदलते स्वरूप से स्वतंत्र नहीं है। जिन व्यक्तियों ने ज्ञान में पूर्णता प्राप्त कर ली है, उन्हें निर्वाण एवं अस्तित्व के परिवर्तनशील प्रवाह का एक साथ बौद्ध होता है। यह पूर्णता उन दूसरी 'पूर्णताओं' को रुपांतरित करती है, जो बोधिसत्व (भावी बुद्ध) के मार्ग के अंग हैं, जैसे नैतिकता, सहनशीलता एवं ध्यान। विवेक की पराकाष्ठा पूर्णता के लिए प्रयासरत उत्साही व्यक्ति को पूर्णता की आसक्ति तक से मुक्ति दिला देती है, उस 'पूर्णता' से, जिसमें उसे क्षण के संबंधात्मक स्वरूप का बोध नहीं होता । अत: विवेक को करुणा से पृथक न करने वाले नागार्जुन के दृष्टिकोण से विद्वतापूर्ण शास्त्रार्थ में हिस्सा लेना, बुद्ध की शिक्षाओं की व्याख्या लिखना तथा श्लोकों में माया एवं पीड़ा से मुक्ति की प्रशंसा करना परम सत्य (धर्म) अनुकूल माने जाते हैं।

मतानुसार

  • ह्रेनसांग के अनुसार अश्वघोष, नागार्जुन, आर्यदेव और कुमारलब्ध (कुमारलात) समकालीन थे।
  • राजतंरगिणी और तारानाथ के मतानुसार नागार्जुन कनिष्क के काल में पैदा हुए थे। नागार्जुन के काल के बारे में इतने मत-मतान्तर हैं कि कोई निश्चित समय सिद्ध कर पाना अत्यन्त कठिन है, फिर भी ई.पू. प्रथम शताब्दी से ईस्वीय प्रथम-द्वितीय शताब्दी के बीच कहीं उनका समय होना चाहिए। कुमारजीव ने 405 ई. के लगभग चीनी भाषा में नागार्जुन की जीवनी का अनुवाद किया था। ये दक्षिण भारत के विदर्भ प्रदेश में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। वे ज्योतिष, आयुर्वेद, दर्शन एवं तन्त्र आदि विद्याओं में अत्यन्त निपुण थे और प्रसिद्ध सिद्ध तान्त्रिक थे।
  • प्रज्ञापारमितासूत्रों के आधार पर उन्होंने माध्यमिक दर्शन का प्रवर्तन किया था। कहा जाता है कि उनके काल में प्रज्ञापारमितासूत्र जम्बूद्वीप में अनुपलब्ध थे। उन्होंने नागलोक जाकर उन्हें प्राप्त किया तथा उन सूत्रों के दर्शन पक्ष को माध्यमिक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया।
  • अस्तित्व का विश्लेषण दर्शनों का प्रमुख विषय रहा है। भारतवर्ष में इसी के विश्लेषण में दर्शनों का अभूतपूर्व विकास हुआ है। उपनिषद-धारा में आचार्य शंकर का अद्वैत वेदान्त तथा बौद्ध-धारा में आचार्य नागार्जुन का शून्याद्वयवाद शिखरायमाण है। परस्पर के वाद-विवाद ने इन दोनों धाराओं के दर्शनों को उत्कर्ष की पराकाष्ठा तक पहुंचाया है। यद्यपि आचार्य शंकर का काल नागार्जुन से बहुत बाद का है, फिर भी नागार्जुन के समय औपनिषदिक धारा के अस्तित्व का अपलाप नहीं किया जा सकता, किन्तु उसकी व्याख्या आचार्य शंकर की व्याख्या से निश्चित ही भिन्न रही होगी। आचार्य नागार्जुन के आविर्भाव के बाद भारतीय दार्शनिक चिन्तन में नया मोड़ आया। उसमें नई गति एवं प्रखरता का प्रादुर्भाव हुआ। वस्तुत: नागार्जुन के बाद ही भारतवर्ष में यथार्थ दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ हुआ। नागार्जुन ने जो मत स्थापित किया, उसका प्राय: सभी बौद्ध-बौद्धेतर दर्शनों पर व्यापक प्रभाव पड़ा और उसी के खण्डन-मण्डन में अन्य दर्शनों ने अपने को चरितार्थ किया।
  • नागार्जुन के मतानुसार वस्तु की परमार्थत: सत्ता का एक 'शाश्वत अन्त' है तथा व्यवहारत: असत्ता दूसरा 'उच्छेद अन्त' है। इन दोनों अन्तों का परिहास कर वे अपना अनूठा मध्यम मार्ग प्रकाशित करते हैं। उनके अनुसार परमार्थत: 'भाव' नहीं है तथा व्यवहारत: या संवृत्तित: 'अभाव' भी नहीं है। यही नागार्जुन का मध्यम मार्ग या माध्यमिक दर्शन है। इस मध्यम मार्ग की व्यवस्था उन्होंने अन्य बौद्धों की भाँति प्रतीत्यसमुत्पाद की अपनी विशिष्ट व्याख्या के आधार पर की है। वे 'प्रतीत्य' शब्द द्वारा शाश्वत अन्त का तथा 'समुत्पाद' शब्द द्वारा उच्छेद अन्त का परिहास करते हैं और शून्यतादर्शन की स्थापना करते हैं।
  • नागार्जुन के नाम पर अनेक ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, किन्तु उनमें
  1. मूलमाध्यमिककारिका
  2. विग्रहव्यावर्तनी
  3. युक्तिषष्टिका
  4. शून्यतासप्तति
  5. रत्नावली
  6. वैदल्यसूत्र
  • इनमें मूलमाध्यमिककारिका शरीर स्थानीय है तथा अन्य ग्रन्थ उसी के अवयव या पूरक के रूप में माने जाते हैं। कहा जाता है कि उन्होंने मूलामाध्यमिककारिका पर 'अकुतोभया' नाम की वृत्ति लिखी थी, किन्तु अन्य साक्ष्यों के प्रकाश में आने पर अब यह मत विद्वानों में मान्य नहीं है। इसके अतिरिक्त सुहृल्लेख एवं सूत्रसमुच्चय आदि भी उनकी कृतियाँ हैं।
  • भारतीय बौद्ध आचार्यों का कृतियों का तिब्बत के 'तन-ग्युर' नामक संग्रह में संकलन किया गया है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अक्षरश: सर्प, पूर्वोत्तर भारत की एक पर्वतीय जाती का नाम भी

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