ग़ालिब का बचपन एवं शिक्षा
ग़ालिब उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि तथा महान् शायर थे। ग़ालिब का पालन पिता की मृत्यु के बाद इनके चचा ने ही किया था, पर शीघ्र ही इनके चचा की भी मृत्यु हो गई थी और ये अपनी ननिहाल में आ गए। पिता स्वयं घर-जमाई की तरह सदा ससुराल में रहे। वहीं उनकी सन्तानों का भी पालन-पोषण हुआ। ननिहाल खुशहाल था। इसलिए ग़ालिब का बचपन अधिकतर वहीं पर बीता और बड़े आराम से बीता। उन लोगों के पास काफ़ी जायदाद थी। ग़ालिब ख़ुद अपने एक पत्र में ‘मफ़ीदुल ख़यायक़’ प्रेस के मालिक मुंशी शिवनारायण को, जिनके दादा के साथ ग़ालिब के नाना की गहरी दोस्ती थी, लिखते हैं।
काला महल
“हमारी बड़ी हवेली वह है, जो अब लक्खीचन्द सेठ ने मोल ली है। इसी के दरवाज़े की संगीन बारहदरी पर मेरी नशस्त थी[1]। और उसी के पास एक ‘खटियावाली हवेली’ और सलीमशाह के तकिया के पास दूसरी हवेली और काले महल से लगी हुई एक और हवेली और इससे आगे बढ़कर एक कटरा जो की ‘गड़रियों वाला’ मशहूर था और एक दूसरा कटरा जो कि ‘कश्मीरन वाला’ कहलाता था। इस कटरे के एक कोठे पर मैं पतंग उड़ाता था और राजा बलवान सिंह से पतंग लड़ा करते थे।”
इस प्रकार से ननिहाल में मज़े से गुज़रती थी। आराम ही आराम था। एक ओर खुशहाल, परन्तु पतलशील उच्च मध्यमवर्ग की जीवन विधि के अनुसार इन्हें पतंग, शतरंज और जुए की आदत लगी, दूसरी ओर उच्च कोटि के बुज़ुर्गों की सोहबत का लाभ मिला। इनकी माँ स्वयं शिक्षित थीं, पर ग़ालिब को नियमित शिक्षा कुछ ज़्यादा नहीं मिल सकी। हाँ, ज्योतिष, तर्क, दर्शन, संगीत एवं रहस्यवाद इत्यादि से इनका कुछ न कुछ परिचय होता गया। फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने आगरा के पास उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान् 'मौलवी मोहम्मद मोवज्जम' से प्राप्त की। इनकी ग्रहण शक्ति इतनी तीव्र थी कि बहुत जल्द ही वह जहूरी जैसे फ़ारसी कवियों का अध्ययन अपने आप करने लगे। बल्कि फ़ारसी में ग़ज़लें भी लिखने लगे।
अब्दुस्समद से मुलाक़ात
इसी ज़माने (1810-1811 ई.) में मुल्ला अब्दुस्समद ईरान से घूमते-फिरते आगरा आये, इन्हीं के यहाँ दो साल तक वे रहे। यह ईरान के एक प्रतिष्ठित और वैभव सम्पन्न व्यक्ति थे, और यज़्द के रहने वाले थे। पहले ज़रतुस्त्र के अनुयायी थे, पर बाद में इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया। इनका पुराना नाम 'हरमुज़्द' था। फ़ारसी तो इनकी घुट्टी में थी। अरबी भाषा का भी इन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। इस समय मिर्ज़ा 14 वर्ष के थे और फ़ारसी में उन्होंने अपनी योग्यता प्राप्त कर ली थी। अब मुल्ला अब्दुस्समद जो आये तो उनसे दो वर्ष तक मिर्ज़ा ने फ़ारसी भाषा एवं काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया, और उसमें ऐसे पारंगत हो गए कि जैसे खुद भी ईरानी हों। अब्दुस्समद इनकी प्रतिभा से चकित थे, और उन्होंने अपनी सारी विद्या इनमें उड़ेल दी। वह इनको बहुत चाहते थे। जब वह स्वदेश लौट गए तब भी दोनों का पत्र व्यवहार जारी रहा। क़ाज़ी अब्दुल वदूद तथा एक-दो और विद्वानों ने अब्दुस्समद को एक कल्पित व्यक्ति बताया है। कहा जाता है कि मिर्ज़ा से स्वयं भी एकाध बार भी सुना गया कि ‘अब्दुस्समद’ एक फ़र्ज़ी नाम है। चूँकि मुझे लोग 'बे-उस्ताद' (बिन गुरु का) कहते थे। उनका मुँह बन्द करने के लिए मैंने एक फ़र्ज़ी उस्ताद गढ़ लिया है।[2] पर इस तरह की बातें केवल अनुमान और कल्पना पर आधारित हैं।
सामाजिक वातावरण का प्रभाव
ग़ालिब में उच्च प्रेरणाएँ जागृत करने का काम शिक्षण से भी ज़्यादा उस वातावरण ने किया, जो इनके इर्द-गिर्द था। जिस मुहल्ले में वह रहते थे, वह (गुलाबख़ाना) उस ज़माने में फ़ारसी भाषा के शिक्षण का उच्च केन्द्र था। रूम के भाष्यकार मुल्ला वली मुहम्मद, उनके बेटे शम्सुल जुहा, मोहम्मद बदरुद्दिजा, आज़म अली तथा मौहम्मद कामिल वग़ैरा फ़ारसी के एक-से-एक विद्वान् वहाँ रहते थे। वातावरण में फ़ारसीयत भरी थी। इसीलिए यह उससे प्रभावित न होते, यह कैसे सम्भव था। पर जहाँ एक ओर यह तालीम-तर्वियत थी, वहीं ऐशो-इशरत की महफ़िलें भी इनके इर्द-गिर्द बिखरी हुई थीं। दुलारे थे, पैसे-रुपये की कमी नहीं थी। पिता एवं चचा के मर जाने से कोई दबाव रखने वाला न था। किशोरावस्था, तबीयत में उमंगें, यार-दोस्तों के मजमें (जमघट), खाने-पीने शतरंज, कबूतरबाज़ी, यौवनोन्माद सबका जमघट। आदतें बिगड़ गईं। हुस्न के अफ़सानों में मन उलझा, चन्द्रमुखियों ने दिल को खींचा। ऐशो-इशरत का बाज़ार गर्म हुआ। 24-25 वर्ष की आयु तक ख़ूब रंगरेलियाँ कीं, पर बाद में उच्च प्रेरणाओं ने इन्हें ऊपर उठने को बाध्य किया। ज़्यादातर बुरी आदतें दूर हो गईं, पर मदिरा पान की लत लगी सो मरते दम तक न छूटी।
शेरो-शायरी की शुरुआत
इनकी काव्यगत प्रेरणाएँ स्वाभाविक थीं। बचपन से ही इन्हें शेरो-शायरी की लत लगी। इश्क़ ने उसे उभारा, 'गो' (यद्यपि) वह इश्क़ बहुत छिछला और बाज़ारू था। जब यह मोहम्मद मोअज्ज़म के 'मकतबे' (पाठशाला, मदरसा) में पढ़ते थे और 10-11 वर्ष के थे, तभी से इन्होंने शेर कहना आरम्भ कर दिया था। शुरू में बेदिल एवं शौक़त के रंग में कहते थे। बेदिल की छाप बचपन से ही पड़ी। 25 वर्ष की आयु में दो हज़ार शेरों का एक 'दीवान' तैयार हो गया। इसमें वही चूमा-चाटी, वही स्त्रैण भावनाएँ, वही पिटे-पिटाए मज़मून (लेख, विषय) थे। एक बार उनके किसी हितैषी ने इनके कुछ शेर मीर तक़ी ‘मीर’ को सुनाए। सुनकर ‘मीर’ ने कहा, ‘अगर इस लड़के को कोई काबिल उस्ताद मिल गया और उसने इसको सीधे रास्ते पर डाल दिया तो लाजवाब शायर बन जायेगा। बर्ना 'महमिल' (निरर्थक) बकने लगेगा।’ मीर की भविष्यवाणी पूरी हुई। सचमुच यह महमिल बकने लगे थे, पर अन्त: प्रेरणा एवं बुज़ुर्गों की कृपा से उस स्तर से ऊपर उठ गये। ‘मीर’ की मृत्यु के समय ग़ालिब केवल 13 वर्ष के थे और दो ही तीन साल पहले उन्होंने शेर कहने शुरू किए थे। प्रारम्भ में ही इस छोकरे की (ग़ालिब) कवि की ग़ज़ल इतनी दूर लखनऊ में ‘खुदाए-सखुन’ ‘मीर’ के सामने पढ़ी गई और ‘मीर’ ने, जो बड़ों-बड़ों को ख़ातिरों में न लाते थे, इनकी सुप्त प्रतिभा को देखकर इनकी रचनाओं पर सम्मति दी। इससे ही जान पड़ता है कि प्रारम्भ से ही इनमें उच्च कवि के बीज थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह बड़ी हवेली.......अब भी पीपलमण्डी आगरा में मौजूद है। इसी का नाम ‘काला’ (कलाँ?) महल है। यह निहायत आलीशान इमारत है। यह किसी ज़माने में राजा गजसिंह की हवेली कहलाती थी। राजा गजसिंह जोधपुर के राजा सूरजसिंह के बेटे थे और अहदे जहाँगीर में इसी मकान में रहते थे। मेरा ख़्याल है कि मिर्ज़ा ग़ालिब की पैदाइश इसी मकान में हुई होगी। आजकल (1838 ई.) यह इमारत एक हिन्दू सेठ की मिल्कियत है और इसमें लड़कियों का मदरसा है।-‘ज़िक्रे ग़ालिब’ (मालिकराम), नवीन संस्मरण, पृष्ठ 21
- ↑ ‘आदगारे ग़ालिब’ (हाली)-इलाहाबादी संस्करण पृष्ठ 13।
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