ग़ालिब की मृत्यु
ग़ालिब उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि तथा महान् शायर थे। मिर्ज़ा ग़ालिब की मृत्यु 15 फ़रवरी, 1869 ई. को दोपहर ढले हुई थी। इस दिन एक ऐसी प्रतिभा का अन्त हो गया, जिसने इस देश में फ़ारसी काव्य को उच्चता प्रदान की और उर्दू गद्य-पद्य को परम्परा की श्रृंखलाओं से मुक्त कर एक नये साँचे में ढाला।
ग़ालिब शिया मुसलमान थे, पर मज़हब की भावनाओं में बहुत उदार और स्वतंत्र चेता थे। इनकी मृत्यु के बाद ही आगरा से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘ज़ख़ीरा बालगोविन्द’ के मार्च, 1869 ई. के अंक में इनकी मृत्यु पर जो सम्पादकीय लेख छपा था और जो शायद इनके सम्बन्ध में लिखा सबसे पुराना और पहला लेख है, उससे तो एक नई बात मालूम होती है कि यह बहुत पहले चुपचाप ‘फ़्रीमैसन’ हो गए थे और लोगों के बहुत पूछने पर भी उसकी गोपनीयता की अन्त तक रक्षा करते रहे।
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मृतक संस्कार मतभेद
मृत्यु के बाद ग़ालिब के मित्रों में इस बात को लेकर मतभेद हुआ कि शिया या सुन्नी, किस विधि से इनका मृतक संस्कार हो। ग़ालिब शिया थे, इसमें किसी को सन्देह की गुंजाइश न थी, पर नवाब ज़ियाउद्दीन और महमूद ख़ाँ ने सुन्नी विधि से ही सब क्रिया-कर्म कराया और जिस लोहारू ख़ानदान ने 1847 ई. में समाचार पत्रों में छपवाया था कि ग़ालिब से हमारा दूर का सम्बन्ध है, उसी ख़ानदान के नवाब ज़ियाउद्दीन ने सम्पूर्ण मृतक संस्कार करवाया और उनके शव को गौरव के साथ अपने वंश के क़ब्रिस्तान (जो चौसठ खम्भा के पास है) में अपने चचा के पास जगह दी।
ग़ालिब की मृत्यु पर बहुतों ने मरसिये लिखे, जिनमें हाली, मजरूह और सालिक के मरसिये मशहूर हैं। उनके समाधि स्तम्भ पर मजरूह का निम्नलिखित क़िता खुदा हुआ है-
या हय्यि या क़य्यूम
रश्के उर्फ़ी व फ़ख्रे तालिब मर्द
असदउल्ला ख़ाने ग़ालिब मर्द
कल में ग़मों अन्दोह में बाख़ातिरे महजूँ
था तुर्बते उस्ताद पै बैठा हुआ ग़मनाक
देखा तो मुझे फ़िक्र में तारीख़ की ‘मजरूह’
हातिफ़ ने कहा-‘गंजे मआनी है तहेख़ाक’।
मिर्ज़ा की मृत्यु का उनकी पत्नी तथा अन्य आश्रितों पर क्या प्रभाव पड़ा होगा, इसकी कल्पना मात्र की जा सकती है। मिर्ज़ा की ज़िन्दगी ज़्यादातर दु:खों में बीती। पारिवारिक सुख के लिए ये सदा ही तरसते रहे। सात बच्चे हुए-पुत्र और पुत्रियाँ। पर कोई भी पन्द्रह महीने से ज़्यादा नहीं जी पाया। पत्नी से भी वह हार्दिक सौख्य न मिला, जो जीवन की दम घोटने वाली घाटियों के बीच चलते हुए मनुष्यों को बल प्रदान करता है।
उमराव बेगम का पत्र तथा मृत्यु
मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ान 'ग़ालिब' की मृत्यु के बाद उनकी विधवा उमराव बेगम पर जो विपत्तियाँ आई होंगी, उनकी कल्पना की जा सकती है। अंग्रेज़ सरकार से मिलने वाली पेंशन, रामपुर का वज़ीफ़ा सब बन्द हो गया। ऋणदाताओं के तक़ाज़े से अन्त तक ग़ालिब परेशान रहे। अब वह बोझ भी इन पर आ पड़ा। मृत्यु के समय मिर्ज़ा पर 800 रुपये का क़र्ज़ था, जिसके लिए उन्होंने रामपुर दरबार से प्रार्थना की थी, पर अभी तक उसका कुछ न हुआ। 1 अगस्त, 1869 को उमराव बेगम ने नवाब रामपुर को निम्नलिखित पत्र भेजा-
"जनाब आली! जिस रोज़ से मिर्ज़ा असदउल्ला ख़ाँ ने वफ़ात[1] पाई है, तो यह आज़िज़ बेवा इस क़दर मसायब[2] में गिरफ़्तार है कि तहरीर के बाहर है। अव्वल तो यह मुसीबत है कि मिर्ज़ा साहब मरहूम आठ सौ रुपये क़र्ज़दार मरे, दूसरी मुसीबत यह है कि पेंशन अंग्रेज़ी मस्दूद[3] हुई, तीसरी यह कि तनख़्वाह सौ रुपये माहवार, जो आप अज़राहे क़द्रदानी के मिर्ज़ा मरहूम को इरसाल फ़र्माते[4] थे, वह भी एक लख़्त मौक़ूफ़[5] हुई। अब तक क़र्ज़ लेकर औक़ात बसर की। अब क़र्ज़ भी नहीं मिलता। नौबत फ़ाक़ाक़शी[6] की पहुँची। अब दुआगो की यह तमन्ना है कि ऐसी परवरिश मुझ ज़ईफ़ा[7] की हो जाए कि मिर्ज़ा मरहूम हक़े अबाद से बरी हो जायें कि यह सख़्त अज़ाब है। अगर हुज़ूर सूरते अदाए क़र्ज़ फ़रमावें तो कमाले सबाबे अज़ीम[8] होगा।" पेंशन मेरी दस रुपये अंग्रेज़ करता है[9]। बशर्तें की मैं कचहरी में हाज़िर होऊँ और मेरा कचहरी में जाना हर्गिज़ न होगा, गो फ़ाक़ों ही मर जाऊँ। क्या मैं अपने पिता और चचा और शौहर का नाम रोशन करूँ। और जो इज़्ज़त और रियासत मेरे चचा की और हुर्मत[10] मेरे वालिद की और शौहर की आगे ख़ासोआम के थी, हुज़ूर पर सब रोशन है।"
इस करुणाजनक अर्ज़ी पर भी नवाब रामपुर का दिल नहीं पसीजा। 2 सितम्बर, 1869 को बेचारी विधवा ने दोबारा पत्र लिखा। इस पर 9 सितम्बर को नवाब मिर्ज़ा ‘दाग़’ को हुक्म हुआ कि जाँच करके रिपोर्ट करें। 30 अक्टूबर को नवाब ने हुक्म दिया कि उमराव बेगम को 600 रुपये की हुण्डी भेजी जाए।
पता नहीं चलता कि यह 600 रुपये की हुण्डी किस हिसाब से भेजी गई, न ही यह पता चलता है कि वह भेजी भी गई या नहीं और भेजी भी गई तो उमराव बेगम को मिली या नहीं। इन दु:ख की घड़ियों में उमराव बेगम के चचेरे भाई और मिर्ज़ा के शिष्य नवाब ज़ियाउद्दीन ख़ाँ ने मदद की और 25 या 50 रुपये मासिक वृत्ति भी नियत कर दी, जो उन्हें मृत्यु तक मिलती रही। नवाब ज़ियाउद्दीन आजीवन और जीवानान्तर भी ग़ालिब के सहायक रहे। जब ग़दर में पेंशन बन्द हो गई थी, तब भी 50 रुपये माहवार उमराव बेगम को देते रहे। पर उमराव बेगम वैधव्य का दु:ख झेलने के लिए ज़्यादा दिन ज़िन्दा न रहीं और शौहर की मृत्यु के ठीक एक वर्ष बाद 4 फ़रवरी, 1870 को, दिन के 10-11 बजे परलोक वासिनी हो गईं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मृत्यु
- ↑ कष्ट
- ↑ बन्द
- ↑ भेजते थे
- ↑ स्थगित
- ↑ भूखों रहना
- ↑ वृद्धा
- ↑ परम पुण्य
- ↑ उमराव बेगम ने अंग्रेज़ों के यहाँ दर्ख़ास्त दी थी कि मिर्ज़ा साहब की पेंशन हुसेन अली ख़ाँ के नाम कर दी जाए। डिप्टी कमिश्नर ने इसकी सिफ़ारिश की पर कमिश्नर ने आदेश दिया कि ऐसा नहीं हो सकता; हाँ बेबा को दस रुपये महावार वज़ीफ़ा मिल सकता है, बशर्ते कि वह कचहरी में हाज़िर हों। बेगम ग़ालिब ने यह शर्त क़बूल न की
- ↑ आदर, इज़्ज़त
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