ग़ालिब का मुक़दमा
ग़ालिब उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि तथा महान् शायर थे। असलियत यह थी कि नसरुल्लाबेग की मृत्यु के बाद उनकी जागीर (सोंख और सोंसा) अंग्रेज़ों ने ली थी। बाद में 25 हज़ार सालाना पर अहमदबख़्श को दे दी गई। 4 मई, 1806 को लॉर्ड लेक ने अहमदबख़्श ख़ाँ से मिलने वाली 25 हज़ार वार्षिक मालगुज़ारी इस शर्त पर माफ़ कर दी कि वह दस हज़ार सालाना नसरुल्लाबेग ख़ाँ के आश्रितों को दे। पर इसके चन्द दिनों बाद ही 7 जून, 1806 को नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने लॉर्ड लेक से मिल-मिलाकर इसमें गुपचुप परिवर्तन करा लिया था कि, सिर्फ़ 5 हज़ार सालाना ही नसरुल्लाबेग ख़ाँ के आश्रितों को दिए जायें और इसमें ख़्वाजा हाजी भी शामिल रहेगा। इस गुप्त परिवर्तन एवं संशोधन का ज्ञान ‘ग़ालिब’ को नहीं था। इसलिए फ़ीरोज़पुर झुर्का के शासक पर दावा दायर कर दिया कि उन्होंने एक तो आदेश के विरुद्ध पेंशन आधी कर दी, फिर उस आधी में भी ख़्वाजा जी को शामिल कर लिया।
ग़ालिब का दावा
ग़ालिब ने जो मुक़दमा दायर किया था, उसमें पाँच प्रार्थनाएँ थीं-
- 4 मई, 1806 के आदेशानुसार मुझे और मेरे ख़ानदान के दूसरे व्यक्तियों को दस हज़ार रुपये सालाना मिलना चाहिए था। नवाब लोहारू पाँच हज़ार देते हैं और उसमें से भी दो हज़ार एक पराये व्यक्ति ख़्वाजा हाजी या उसके वारिसों को दिया जाता है। जिसका हमारे ख़ानदान से कोई सम्बन्घ नहीं है। भविष्य में दस हज़ार मिलने की आज्ञा दी जाए।
- मई 1806 से लेकर अब तक हमें दस हज़ार सालाना से जितना कम मिला है, वह सारा बक़ाया दिलाया जाए। (ग़ालिब के हिसाब से यह रक़म उस समय डेढ़ लाख रुपये के लगभग होती थी।)
- .हमारी पेंशन में किसी पराये व्यक्ति का हिस्सा नहीं होना चाहिए। (मतलब ख़्वाजा हाजी के बेटों को जो पेंशन मिल रही है, वह बन्द कर दी जाए।)
- आगे से मेरी पेंशन नवाब शम्सुद्दीन ख़ाँ की जगह अंग्रेज़ ख़ज़ाने से सीधी दी जाया करे।
- सम्मान स्वरूप मुझे ख़िताब, ख़िलअत[1] और दरबार का मनसब[2] दिया जाए।
मुक़दमा दायर करने के बाद
- ग़ालिब का विश्वास
मिर्ज़ा को विश्वास था कि उनके कलकत्ता जाने और गवर्नर-जनरल तथा अन्य उच्चाधिकारियों से मिलने का मुक़दमे पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। उस ज़माने में जब यात्रा के इतने साधन सुलभ नहीं थे, मिर्ज़ा ने बहुत विवश होने पर ही इस लम्बी यात्रा का निश्चय किया होगा। अगस्त 1826 ई. के लगभग वह दिल्ली से कलकत्ता जाने के लिए रवाना हुए। लखनऊ के काव्य प्रेमी एवं विद्वज्जन बहुत समय से ही इन्हें बुला रहे थे। पर मौक़ा न मिलता था। अब वह कलकत्ता के लिए निकले तो कानपुर से लखनऊ होते हुए वहाँ जाना तय किया। लखनऊ वालों ने उनका हार्दिक स्वागत किया; उन्हें सिर आँखों पर बिठाया। निम्नलिखित क़ते में उन्होंने लखनऊ का ज़िक्र इस प्रकार से किया है-
वाँ पहुँचकर जो ग़श आता पैहम है हमको।
सद रहे आहंगे-ज़मीं बोसे क़दम है हमको।
लखनऊ आने का बाइस[3] नहीं खुलता यानी,
हविसे-सैरो-तमाशा सो वह कम है हमको।
ताक़त रंजे सफ़र ही नहीं पाते इतना,
हिज्रे याराने वतन[4] का भी आलम[5] है हमको।
फ़ैसले का पक्ष में न आना
बनारस इनको इतना अच्छा लगा कि ज़िन्दगी भर उसे नहीं भूल पाये। 40 साल बाद भी एक पत्र में लिखते हैं कि, ‘अगर मैं जवानी में वहाँ जाता तो, वहीं पर बस जाता।’ बनारस से नौका द्वारा ही कलकत्ता जाने की उनकी इच्छा थी, पर उसमें व्यय बहुत अधिक था। इसीलिए घोड़े पर रवाना हुए और पटना एवं मुर्शिदाबाद होते हुए 20 फ़रवरी, 1828 को कलकत्ता पहुँचे। यहाँ उन्होंने शिमला बाज़ार में मिर्ज़ा अली सौदागर की हवेली में एक बड़ा मकान दस रुपये मासिक किराये पर लिया। पर इनके कलकत्ता पहुँचने से पूर्व ही नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ की मृत्यु हो गई। इसीलिए अब झगड़ा उनके वारिस शम्सुद्दीन ख़ाँ से शुरू हुआ।
जब मिर्ज़ा अनेक कठिनाइयाँ झेलने के बाद कलकत्ता पहुँचे तो उन्हें गवर्नर-जनरल की कौंसिल का जवाब मिला कि पहले ये मुक़दमा दिल्ली के अंग्रेज़ रेज़ीडेंट के सामने पेश होना चाहिए। वहाँ से रिपोर्ट आने पर ही निर्णय किया जाएगा। उस ज़माने में जब यात्रा बड़ी कष्टसाध्य थी, कलकत्ता से फिर दिल्ली मुक़दमें के लिए लौटना मुश्किल था। इसीलिए वह स्वयं तो कलकत्ता में ही रहे और दिल्ली रेज़ीडेंट से मुक़दमें के लिए हीरालाल नामक व्यक्ति को नियुक्त किया। इन दिनों सर एडवर्ड कोलब्रूक दिल्ली में रेज़ीडेंट थे। मिर्ज़ा ने कलकत्ता के उनके एक मित्र कर्नल हेनरी इम्लाक से भेंट करके उनसे सियासी पत्र लिया। इसी प्रकार कोलब्रुक के मीर मुंशी अल्तफ़ात हुसैन ख़ाँ के नाम भी एक पत्र नवाब अकबर अली ख़ाँ तबातबाई मोतवल्ली इमामबाड़ा हुगली से प्राप्त किया और दोनों खत अपने वकील को दिल्ली भेज दिए। उन लोगों ने मदद करने का वादा किया। ग़ालिब सरकार के सेक्रेटरी एण्डरू एस्टरलिंग से भी मिले। उन्होंने भी मिर्ज़ा को आश्वासन दिया कि न्याय होगा। सर एडवर्ड कोलब्रुक ने भी अपनी रिपोर्ट भी इनके अनुकूल भेद दी। पर कोलब्रुक अव्वल दर्जे का रिश्वतख़ोर था और इसी रिश्वतख़ोरी के जुर्म में वह कुछ दिनों के बाद निकाल दिया गया। उसकी जगह फ़्राँसिस हाकिंस रेज़ीडेट नियुक्त हुआ। हाकिंस की नवाब शम्सुद्दीन से मित्रता थी। स्वभावत: उसने सरकार के पास दूसरी रिपोर्ट भेजी और लिखा की असदउल्ला ख़ाँ 'ग़ालिब' को जो साढ़े सात सौ मिलते रहे हैं, उससे अधिक पाने का वह अधिकारी नहीं है। बहरहाल जिस उद्देश्य से मिर्ज़ा कलकत्ता गए थे, उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। अफ़सरों ने इज़्ज़त की, मदद का वादा किया, पर कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। मिर्ज़ा 'ग़ालिब' को बड़ी आशा थी कि न्याय होगा और फ़ैसला उनके पक्ष में होगा। इसी आशा पर वह डेढ़ वर्ष से ज़्यादा अर्से तक कलकत्ता में पड़े रहे। फ़ैसले में बड़ी देर हो रही थी और हाकिंस के विरोध का भी समाचार भी दिल्ली से आ रहा था। इसीलिए इन्होंने वकील नियुक्त कर दिल्ली लौटने का निर्णय लिया। 29 नवम्बर, 1829 को दिल्ली लौट आए। जिस एस्टरलिंग पर इनको इतना भरोसा था, वह 30 मई, 1830 को मर गया और 27 जनवरी, 1831 ई. को गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने इनके विरुज़ मुक़दमें का निर्णय दे दिया।
ग़ालिब की निरंतर कोशिशें
फ़ैसला अपने पक्ष में न आने पर भी ग़ालिब मुक़दमें में दायर की गईं अपनी माँगों पर डटे रहे और इसके लिए निरन्तर कोशिशें करते रहे। इधर उनकी ये माँगें थी, उधर लोहारू की जायदाद के बारे में खुद भाइयों में झगड़ा था। नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ की वसीयत के अनुसार फ़ीरोज़पुर झुर्का का इलाक़ा शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ एवं परगना लोहारू उनके दोनों छोटे भाइयों-अमीनुद्दीन अहमद ख़ाँ एवं ज़ियाउद्दीन अहमद ख़ाँ के हिस्से में आया था। पिता की मृत्यु होते ही शम्सुद्दीन ने इस बँटवारे के विरुद्ध आवाज़ उठाई और कहा कि ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते सारी जायदाद का अधिकार मुझे मिलना चाहिए। दूसरी सन्तति को ज़्यादा से ज़्यादा वृत्ति दिलाई जा सकती है। उन्हें एक और बहाना भी मिल गया। बात यह भी थी कि बड़े होने के कारण् लोहारू का इन्तज़ाम नवाब अमीनुद्दीन ख़ाँ के हाथ था। प्रबन्ध उन्हें सौंपते समय यह शर्त रखी गई थी कि जायदाद की आमदनी से 5210 रुपया सालाना सरकारी ख़ज़ाने में छोटे भाई नवाब ज़ियाउद्दीन के व्यय के लिए जमा कर दिया जाया करे। इसकी ओर ध्यान न दिया गया, इसीलिए शम्सुद्दीन का पक्ष प्रबल हो गया। दिल्ली के रेजीडेण्ट मिस्टर मार्टिन ने शम्सुद्दीन ख़ाँ का समर्थन किया और अन्त में सितम्बर, 1833 में लोहारू का प्रबन्ध भी शम्सुद्दीन ख़ाँ को इस शर्त पर दे दिया गया कि वह अपने दोनों भाइयों को गुज़ारे के लिए 26 हज़ार रुपये सालाना देते रहेंगे।
मार्टिन के बाद विलियम फ़्रेज़र नये रेज़ीडेण्ट होकर आए। आरम्भ में तो इनकी भी नवाब शम्सुद्दीन से अच्छी मित्रता थी, पर बाद में किसी बात पर दोनों में विरोध हो गया। फ़्रेज़र लोहारू परगना शम्सुद्दीन ख़ाँ को दिए जाने के पक्ष में नहीं थे। उन्हें यह माँग अन्यायपूर्ण लगी। इसीलिए उन्होंने पूरी चेष्टा की कि अंग्रेज़ सरकार इन प्रार्थना को ठुकरा दे, किन्तु फ़ैसला शम्सुद्दीन ख़ाँ के पक्ष में हुआ। इससे दोनों के बीच गाँठ पड़ गई। फ़ैसले के बाद भी फ़्रेज़र ने उसके विरुद्ध सरकार को लिखा और नवाब अमीनउद्दीन ख़ाँ को सलाह दी कि वह कलकत्ता जाकर प्रयत्न करे। उसकी सलाह मानकर अमीनुद्दीन ख़ाँ सितम्बर 1834 में कलकत्ता गए। ग़ालिब ने भी उन्हें अपने कलकत्ता के मित्रों के नाम परिचय पत्र दिए। इन प्रयत्नों के फलस्वरूप पहला हुक्म मंसूख़[6] हो गया और लोहारू दोनों भाइयों को पुन: मिल गया। इससे शम्सुद्दीन और फ़्रेज़र की अनबन शत्रुता में बदल गई।
कलकत्ता यात्रा का परिणाम
मुक़दमा हार जाने से जो असर हुआ होगा, उसकी कल्पना की जा सकती है। उनकी समस्त आशाएँ इसी मुक़दमे पर लगी हुई थीं, वे टूट गईं। यात्रा में बहुत अधिक व्यय हुआ, तकलीफ़ें भी उठानी पड़ीं, क़र्ज़ हो गया। कईयों की डिग्रियाँ हुईं। इनके पास क्या था? ऐसी हालत में इन्हें जेल जाना ही था, पर चूँकि इनकी जान-पहचान बड़ों-बड़ों से थी, इसीलिए ये जब तक घर के बाहर न निकलते, इनकी गिरफ़्तारी न होती। महीनों तक यह घर में छिपे बैठे रहे। यही ज़माना था जिसमें इनके कृपालु मित्र फ़्रेज़र की हत्या हुई थी और नवाब शम्सुद्दीन उस समय में पकड़े गए थे और बाद में उन्हें फाँसी हुई थी। चूँकि इनकी शम्सुद्दीन से बनती नहीं थी, इसीलिए बहुत-से लोगों की यह धारणा हुई कि इन्हीं ने जासूसी करके नवाब को पकड़वाया है। दिल्ली वाले शम्सुद्दीन को बहुत मानते थे। इसीलिए लोग इनकी जान के ग्राहक हो गए। एक ओर अर्थकष्ट, दूसरी ओर प्राण का भय। यह समय इनके लिए बड़ा ही बुरा था। इसीलिए व्यावहारिक दृष्टि से कलकत्ता यात्रा इनके लिए निराशाजनक एवं निरर्थक रही। पर इनकी बौद्धिक सम्पदा और अनुभव-ज्ञान में उससे ख़ूब वृद्धि हुई। नये अनुभव हुए, गुर्वत में नये-नये आदमियों से परिचय हुआ। फिर उस ज़माने में कलकत्ता भारत के क्षितिज पर नया-नया ही उग रहा था। वहाँ एक नई सभ्यता उठ रही थी। औद्योगिक सभ्यता की भूमिका लिखी जा रही थी, उससे उनका साक्षात्कार हुआ। इन्हें वैज्ञानिक आविष्कारों के करिश्मे देखने को मिले। जगमगाती बत्तियाँ, सेवा के लिए नलों में दौड़ता जल, पंखे झलते वायुदेवता से इनका परिचय हुआ। इससे इनके मानसिक निर्माण पर काफ़ी असर पड़ा। फिर लखनऊ में नासिख़ के नेतृत्व में ज़बान तराश-ख़राश और सफ़ाई की कोशिशें हो रही थीं। उन्हें देखने तथा मार्ग में अनेक विद्वानों से मिलने के बाद इनका दृष्टिकोण स्पष्ट और विशद होता गया। यात्रा के पहिले और बाद की रचना में स्पष्ट अन्तर दिखाई पड़ता है।
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