ग़ालिब का परिचय
ग़ालिब उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि तथा महान् शायर थे। इनके दादा 'मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ' समरकन्द से भारत आए थे। बाद में वे लाहौर में 'मुइनउल मुल्क' के यहाँ नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ के बड़े बेटे 'अब्दुल्ला बेग ख़ाँ से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, नवाब आसफ़उद्दौला की फ़ौज में शामिल हुए और फिर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा 'बख़्तावर सिंह' के यहाँ लग गए। लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए। मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चचा जान 'नसरुउल्ला बेग ख़ान' ने संभाला। पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं। जब वे 9 वर्ष के थे, तब चचा जान भी चल बसे। मिर्ज़ा ग़ालिब का सम्पूर्ण जीवन ही दु:खों से भरा हुआ था। आर्थिक तंगी ने कभी भी इनका पीछा नहीं छोड़ा। क़र्ज़ में हमेशा घिरे रहे, लेकिन अपनी शानो-शौक़त में कभी कमी नहीं आने देते थे। इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा। जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा प्राप्त था, वह भी बन्द कर दी गई थी।
आरंभिक जीवन
वंश परम्परा
ईरान के इतिहास में जमशेद का नाम प्रसिद्ध है। यह थिमोरस के बाद सिंहासनासीन हुआ था। 'जश्ने-नौरोज़' (नव वर्ष का उत्सव) का आरम्भ इसी ने किया था, जिसे आज भी हमारे देश में पारसी धर्म के लोग मनाते हैं। कहते हैं, इसी ने 'द्राक्षासव' या 'अंगूरी'[1] को जन्म दिया था। फ़ारसी एवं उर्दू काव्य में ‘जामे-जम’ (जो ‘जामे जमशेद’ का संक्षिप्त रूप है)[2] अमर हो गया। इससे इतना तो मालूम पड़ता ही है कि यह मदिरा का उपासक था और डटकर पीता और पिलाता था। जमशेद के अन्तिम दिनों में बहुत से लोग उसके शासन एवं प्रबन्ध से असन्तुष्ट हो गए थे। इन बाग़ियों का नेता ज़हाक था, जिसने जमशेद को आरे से चिरवा दिया था, पर वह स्वयं भी इतना प्रजा पीड़क निकला कि उसे सिंहासन से उतार दिया गया। इसके बाद जमशेद का पोता 'फरीदूँ' गद्दी पर बैठा, जिसने पहली बार 'अग्नि-मन्दिर' का निर्माण कराया। यही फरीदूँ 'ग़ालिब वंश' का आदि पुरुष था।
फरीदूँ का राज्य उसके तीन बेटों- एरज, तूर और सलम में बँट गया। एरज को ईरान का मध्य भाग, तूर को पूर्वी तथा सलम को पश्चिमी क्षेत्र मिले। चूँकि एरज को प्रमुख भाग मिला था, इसीलिए अन्य दोनों भाई उससे असन्तुष्ट थे। उन्होंने मिलकर षडयंत्र किया और एरज को मरवा डाला। पर बाद में एरज के पुत्र मनोचहर ने उनसे ऐसा बदला लिया कि वे तुर्किस्तान भाग गए और वहाँ 'तूरान' नाम का एक नया राज्य क़ायम किया। तूर वंश और ईरानियों में बहुत दिनों तक युद्ध होते रहे। तूरानियों के उत्थान-पतन का क्रम चलता रहा। अन्त में ऐबक ने खुरासान, इराक़ इत्यादि में सैलजूक राज्य की नींव डाली। इस राजवंश में तोग़रल बेग (1037-1063 ई.), अलप अर्सलान (1063-1072 ई.) तथा मलिकशाह (1072-1092 ई.) इत्यादि हुए, जिनके समय में तूसी एवं उमर ख़य्याम के कारण फ़ारसी काव्य का उत्कर्ष हुआ। मलिकशाह के दो बेटे थे। छोटे का नाम बर्कियारूक़ (1094-1104 ई.) था। इसी की वंश परम्परा में ग़ालिब हुए। जब इन लोगों का पतन हुआ, ख़ानदान तितर-बितर हो गया। लोग क़िस्मत आज़माने इधर-उधर चले गए। कुछ ने सैनिक सेवा की ओर ध्यान दिया। इस वर्ग में एक थे, 'तर्समख़ाँ' जो समरकन्द रहने लगे थे। यही ग़ालिब के परदादा थे।
दादा और पिता
तर्समख़ाँ के पुत्र क़ौक़न बेग ख़ाँ, शाहआलम के ज़माने में अपने पिता से झगड़कर हिन्दुस्तान चले आए थे। उनकी मातृभाषा तुर्की थी। हिन्दुस्तानी भाषा में बड़ी कठिनाई से कुछ टूटे-फूटे शब्द बोल लेते थे। यह क़ौक़न बेग, 'ग़ालिब' के दादा थे। वह कुछ दिन तक लाहौर में रहे, और फिर दिल्ली चले आए। बाद में शाहआलम की नौकरी में लग गए। 50 घोड़े, भेरी और पताका इन्हें मिली और पहासू का परगना रिसाले और ख़र्च के लिए इन्हें मिल गया। क़ौक़न बेग ख़ाँ के चार बेटे और तीन बेटियाँ थीं। बेटों में अब्दुल्ला बेग ख़ाँ और नसरुउल्ला बेग ख़ाँ का वर्णन मिलता है। यही अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, 'ग़ालिब' के पिता थे। अब्दुल्ला बेग का भी जन्म दिल्ली में ही हुआ था। जब तक पिता जीवित रहे, मज़े से कटी, पर उनके मरते ही पहासू की जागीर हाथ से निकल गई।[3] अब्दुल्ला बेग ख़ाँ की शादी आगरा (अकबराबाद) के एक प्रतिष्ठ कुल में 'ख़्वाजा ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ कमीदान' की बेटी, 'इज़्ज़तउन्निसा' के साथ हुई थी। ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ की आगरा में काफ़ी जायदाद थी। वह एक फ़ौजी अफ़सर थे। इस विवाह से अब्दुल्ला बेग को तीन सन्तानें हुईं-'मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ाँ' (ग़ालिब), मिर्ज़ा यूसुफ़ और सबसे बड़ी ख़ानम।
जन्म
मिर्ज़ा असदउल्ला ख़ाँ का जन्म ननिहाल, आगरा में 27 दिसम्बर, 1797 ई. को रात के समय हुआ था। चूँकि पिता फ़ौजी नौकरी में इधर-उधर घूमते रहे, इसीलिए ज़्यादातर इनका लालन-पालन ननिहाल में ही हुआ। जब ये पाँच साल के थे, तभी पिता का देहान्त हो गया था। पिता के बाद चचा नसरुल्ला बेग ख़ाँ ने स्वयं इन्हें बड़े प्यार से पाला। नसरुल्ला बेग ख़ाँ मराठों की ओर से आगरा के सूबेदार थे, पर जब लॉर्ड लेक ने मराठों को हराकर आगरा पर अधिकार कर लिया, तब यह पद भी छूट गया और उसकी जगह एक अंग्रेज़ कमीश्नर की नियुक्ति हुई। किन्तु नसरुल्ला बेग ख़ाँ के साले लोहारू के नवाब फ़खउद्दौला अहमदबख़्श ख़ाँ की लॉर्ड लेक से मित्रता थी। उनकी सहायता से नसरुल्ला बेग अंग्रेज़ी सेना में 400 सवारों के रिसालदार नियुक्त हो गए। रिसाले तथा इनके भरण-पोषण के लिए 1700 रुपये तनख़्वाह तय हुई। इसके बाद मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग ने स्वयं लड़कर भरतपुर के निकट सोंक और सोंसा के दो परगने होल्कर के सिपाहियों से छीन लिए, जो बाद में लॉर्ड लेक द्वारा इन्हें दे दिए गए। उस समय सिर्फ़ इन परगनों से ही लाख-डेढ़ लाख सालाना आमदानी थी।
ग़ालिब का दौर (उर्दू भाषा - देवनागरी लिपि)
मिर्ज़ा असद उल्लाह ख़ाँ ‘ग़ालिब’ 27 दिसम्बर, 1797 को पैदा हुए। सितम्बर, 1796 में एक फ़्राँसीसी, पर्रों, जो अपनी क़िस्मत आज़माने हिन्दुस्तान आया था, दौलत राव सिंधिया की शाही फ़ौज का सिपहसलार बना दिया गया। इस हैसियत से वह हिन्दुस्तान का गवर्नर भी था। उसने दिल्ली का मुहासरा करके[4] उसे फ़तह[5] कर लिया और अपने एक कमांडर, ले मारशाँ को शहर का गवर्नर और शाह आलक का मुहाफ़िज[6] मुक़र्रर[7] किया। उसके बाद उसने आगरा पर क़ब्ज़ा कर लिया। अब शुमाली[8] हिन्दुस्तान में उसके मुक़ाबले का कोई भी नहीं था और उसकी हुमूमत एक इलाक़े पर थी, जिसकी सालाना मालगुज़ारी[9] दस लाख पाउण्ड से ज़्यादा थी। वह अलीगढ़ के क़रीब एक महल में शाहाना[10] शानौ-शौकत[11] से रहता था। यहीं से वह राजाओं और नवाबों के नाम अहकामात[12] जारी करता और बग़ैर किसी मदाख़लत[13] के चंबल से सतलुज तक अपना हुक्म चलाता था।
15 सितम्बर, 1803 ई. को जनरल लेक सिंधिया के एक सरदार बोर्गी ई को शिकस्त[14] देकर फ़ातेहाना[15] अंदाज़ से दाख़िल हुआ। बोर्गी ई का कुछ अर्से तक शहर पर क़ब्ज़ा रह चुका था और उसने इसे अंग्रेज़ों के लिए ख़ाली करने से पहले बहुत एहतेमाम[16] से लूटा था। जनरल लेक शहंशाह क ख़िदमत में हाज़िर हुआ, उसे बड़े-बड़े ख़िताब[17] दिए गए और शाहआलम और उसके जा-नशीन[18] ईस्ट इण्डिया कम्पनी के वज़ीफ़ा-ख़्वार[19] हो गए।
अट्ठाहरवीं सदी का दूसरा हिस्सा वह ज़माना था, जब यूरोप से सिपाही और ताजिर[20] हिन्दुस्तान में अपनी क़िस्मत आजमाने आए और उन्होंने ख़ूब हंगामे किए। इसके मुक़ाबले में बस्त[21] एशिया से मौक़े और मआश[22] की तलाश में आने वालों की तादाद कम थी, मगर थोड़े-बहुत आते ही रहे। इन्हीं में से एक मिर्ज़ा क़ोक़न बेग, मुहम्मद शाही दौर के आख़िर में समरकन्द से आए और लाहौर में मुईन-उल-मुल्क के यहाँ मुलाज़िम[23] हुए। उनके बारे में हमें कम ही मालूम है। उनके दो लड़के थे, मिर्ज़ा ग़ालिब के वालिद[24] अब्दुल्लाह बेग और नस्र उल्लाह बेग। अब्दुल्ला बेग को सिपगहरी[25] के पेशे में कोई ख़ास कामयाबी प्राप्त नहीं हुई। पहले वह आसिफ़ उद्दौला की फ़ौज में मुलाज़िम हुए, फिर हैदराबाद में और फिर अलवर के राजा बख़्तावर सिंह के यहाँ। बेशतर[26] वक़्त उन्होंने ‘ख़ाना दामाद’[27] की हैसियत से गुज़ारा। सन् 1802 ई. में वह एक लड़ाई में काम आए, जब ग़ालिब की उम्र पाँच साल की थी। उनसे सबसे क़रीबी[28] अज़ीज़, [29] लोहारू के नवाब, भी तुर्किस्तान से आए हुए ख़ानदान के थे और उनके जद्दे-आला[30] भी उसी ज़माने में हिन्दुस्तान आए थे, जिस वक़्त मिर्ज़ा क़ोक़म बेग आए थे। ... और पढ़ें
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अंगूर से सम्बन्ध रखने वाली या एक प्रकार की मदिरा
- ↑ 'जामे-जम' कहते हैं- जमशेद ने एक ऐसा जाम (प्याला) बनवाया था, जिससे संसार की समस्त वस्तुओं और घटनाओं का ज्ञान हो जाता था। जान पड़ता है, इस प्याले में कोई ऐसी चीज़ पिलाई जाती होगी, जिसे पीने पर तरह-तरह के काल्पनिक दृश्य दिखने लगते होंगे। जामेजम के लिए जामे जमशेद, जामे जहाँनुमा, जामे जहाँबीं इत्यादि शब्द भी प्रचलित हैं।
- ↑ ग़ालिब की रचनाएँ-कुल्लियाते नस्र और उर्दू-ए-मोअल्ला, देखने से मालूम होता है कि उनके पिता अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, जिन्हें 'मिर्ज़ा दूल्हा' भी कहा जाता था, पहले लखनऊ जाकर नवाब आसफ़उद्दौला की सेवा में नियुक्त हुए। कुछ ही दिनों बाद वहाँ से हैदराबाद चले गए और नवाब निज़ाम अलीख़ाँ की सेवा की। वहाँ 300 सवारों के अफ़सर रहे। वहाँ भी ज़्यादा दिन नहीं टिके और अलवर पहुँच गए तथा वहाँ के राजा बख़्तावर सिंह की नौकरी में रहे। 1802 ई. में वहीं गढ़ी की लड़ाई में उनकी मृत्यु हो गई। पर पिता की मृत्यु के बाद भी वेतन असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) तथा उनके छोटे भाई यूसुफ़ को मिलता रहा। तालड़ा नाम का एक गाँव भी जागीर में मिला था।
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