ग़ालिब का व्यक्तित्व

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ग़ालिब

ग़ालिब उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि तथा महान् शायर थे। ग़ालिब का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था। ईरानी चेहरा, गोरा-लम्बा क़द, सुडौल एकहरा बदन, ऊँची नाक, कपोल की हड्डी उभरी हुई, चौड़ा माथा, घनी उठी पलकों के बीच झाँकते दीर्घ नयन, संसार की कहानी सुनने को उत्सुक लम्बे कान, अपनी सुनाने को उत्सुक, मानों बोल ही पडेंगे। ऐसे ओठ अपनी चुप्पी में भी बोल पड़ने वाले, बुढ़ापे में भी फूटती देह की कान्ती जो इशारा करती है कि जवानी के सौंदर्य में न जाने क्या नशा रहा होगा। सुन्दर गौर वर्ण, समस्त ज़िन्दादिली के साथ जीवित, इसी दुनिया के आदमी, इंसान और इंसान के गुण-दोषों से लगाये-यह थे मिर्ज़ा वा मीरज़ा ग़ालिब।

वस्त्र विन्यास और भोजन

रईसज़ादा थे और जन्म भर अपने को वैसा ही समझते रहे। इसीलिए वस्त्र विन्यास का बड़ा ध्यान रखते थे। जब घर पर होते, प्राय: पाजामा और अंगरखा पहिनते थे। सिर पर कामदानी की हुई मलमल की गोल टोपी लगाते थे। जाड़ों में गर्म कपड़े का कलीदार पाजामा और मिर्ज़ई। बाहर जाते तो अक्सर चूड़ीदार या तंग मोहड़ी का पाजामा, कुर्ता, सदरी या चपकन और ऊपर क़ीमती लबादा होता था। पाँव में जूती और हाथ में मूठदार, लम्बी छड़ी। ज़्यादा ठण्ड होती तो एक छोटा शाल भी कंधे और पीठ पर डाल लेते थे। सिर पर लम्बी टोपी। कभी-कभी टोपी पर मुग़लई पगड़ी या पटका। रेशमी लुंगी के शौक़ीन थे। रंगों का बड़ा ध्यान रखते थे।

खाने-खिलाने के शौक़ीन

खाने-खिलाने के शौक़ीन, स्वादिष्ट भोजनों के प्रेमी थे। गर्मी-सर्दी हर मौसम में उठते ही सबसे पहले ठण्डाई पीते थे, जो बादाम को पीसकर मिश्री के शर्बत में घोली जाती थी। फिर पहर दिन चढ़े नाश्ता करते थे। बुढ़ापे में एक ही बार, दोपहर को खाना खाते; रात को कभी न खाते। खाने में गोश्त ज़रूर रहता था, शायद ही कभी नागा हुआ हो। गोश्त के ताज़ा, बेरेशा, पकने पर मुलायम और स्वादिष्ट रहने की शर्त; फिर मेवे भी उसमें ज़रूर पड़े हों शोरबा आधा सेर के लगभग। बकरी एवं दुम्बे का गोश्त अधिक पसंद था, भेंड़ का अच्छा नहीं लगता था। पक्षियों में मुर्ग, कबूतर और बटेर पसंद था। गोश्त और तरकारी में अपना बस चलते चने की दाल ज़रूर डलवाते थे।

चने की दाल, बेसन की कढ़ी और फुलकियाँ बहुत खाते थे। बुढ़ापे एवं बीमारी में जब मेदा ख़राब हो गया, तो रोटी-चावल दोनों छोड़ दिए और सेर भर गोश्त की गाढ़ी यख़नी और कभी-कभी 3-4 तले शमामी कबाब लेते थे। फलों में अंगूर और आम बहुत पसंद थे। आमों को तो बहुत ही ज़्यादा चाहते थे। मित्रों से उनके लिए फ़रमाइश करते रहते थे, और इसके बारे में अनेक लतीफ़े इनकी ज़िन्दगी से सम्बद्ध हैं। हुक़्क़ा पीते थे, पेचवान को ज़्यादा पसंद करते थे। पान नहीं खाते थे। शराब जन्म भर पीते रहे। पर बुढ़ापे में तन्दुरुस्ती ख़राब होने पर नाम को चन्द तोले शाम को पीते। बिना पिये नींद न आती थी। सदा विलायती शराब पीते थे। ओल्ड टाम और कासटेलन ज़्यादा पसंद थी। शराब की तेज़ी कम करने को आधे से ज़्यादा गुलाबजल मिलाते थे। पात्र को कपड़े से लपेटते और गर्मी के दिनों में कपड़े को बर्फ़ से तर कर देते। ख़ुद ही कहा है-

आसूदा बाद ख़ातिरे ग़ालिब कि ख़ूए औस्त
आमेख़्तन ब बादए साक़ी गुलाब रा।

विनोदप्रिय व मदिरा प्रेमी

मिर्ज़ा ग़ालिब जीवन संघर्ष से भागते नहीं और न इनकी कविता में कहीं निराशा का नाम है। वह इस संघर्ष को जीवन का एक अंश तथा आवश्यक अंग समझते थे। मानव की उच्चता तथा मनुष्यत्व को सब कुछ मानकर उसके भावों तथा विचारों का वर्णन करने में वह अत्यन्त निपुण थे और यह वर्णनशैली ऐसे नए ढंग की है कि, इसे पढ़कर पाठक मुग्ध हो जाता है। ग़ालिब में जिस प्रकार शारीरिक सौंदर्य था, उसी प्रकार उनकी प्रकृति में विनोदप्रियता तथा वक्रता भी थी और ये सब विशेषताएँ उनकी कविता में यत्र-तत्र झलकती रहती हैं। वह मदिरा प्रेमी भी थे, इसलिये मदिरा के संबंध में इन्होंने जहाँ भाव प्रकट किए हैं, वे शेर ऐसे चुटीले तथा विनोदपूर्ण हैं कि, उनका जोड़ उर्दू कविता में अन्यत्र नहीं मिलता।

शराब की चुस्की लेते और साथ-साथ धीमे तले नमकीन बादाम खाते। जब दुर्बल हुए तो इन्हें ख़ुद शराब पीने पर अनुताप होता था। पर आदत छूटती न थी। फिर भी मात्रा कम करने के लिए एक समय, एकान्त में दो या एक ख़ास दोस्तों की उपस्थिति में पीते थे। कहीं ज़्यादा न पी लें, इसीलिए संदूक़ में बोतलें रखते थे उसकी चाबी इनके वफ़ादार सेवक कल्लू दारोग़ा के पास रहती थी और उसे ताक़ीद कर रखा था कि रात को कभी नशे या सुरूर में मैं ज़्यादा पीना चाहूँ और माँगूँ तो मेरा कहना न मानना और

तलब करने पर भी कुंजी (चाबी) न देना। लोगों के पूछने पर भी कि यों नाम करने से क्या फ़ायदा, छोड़ ही न दें, ‘जौंक़’ का शेर पढ़ते थे-


छूटती नहीं है मुँह से यह काफ़िर लगी हुई।

शिष्टता एवं उदारता

मिर्ज़ा के विषय में पहली बात तो यह है कि वह अत्यन्त शिष्ट एवं मित्रपराण थे। जो कोई उनसे मिलने आता, उससे खुले दिल से मिलते थे। इसीलिए जो आदमी एक बार इनसे मिलता था, उसे सदा इनसे मिलने की इच्छा बनी रहती थी। मित्रों के प्रति अत्यन्त वफ़ादार थे। उनकी खुशी में खुशी, उनके दु:ख में दु:ख। मित्रों को देखकर बाग़-बाग़ हो जाते थे। उनके मित्रों का बहुत बड़ा दायरा था। उसमें हर जाति, धर्म और प्रान्त के लोग थे। मित्र को कष्ट में देखते तो इनका हृदय रो पड़ता था। उसका दु:ख दूर करने के लिए जो कुछ भी सम्भव होता था करते थे। स्वयं न कर पाते तो दूसरों से सिफ़ारिश करते। इनके पत्रों में मित्रों के प्रति सहानुभूति एवं चिन्ता के झरने बहुत हुए दिखाई देते हैं। मित्रों को कष्ट में देख ही नहीं सकते थे। उनका दिल कचोटने लगता था। हृदय में रस था, इसीलिए प्रेम छलक पड़ता था। मित्रों क्या शागिर्दों से भी बहुत प्रेम करते थे। इनको इस्लाह ही नहीं देते थे; संसाधनों का कारण भी लिखते थे। बच्चों पर जान देते थे। आमदनी कम थी। ख़ुद कष्ट में रहते थे, फिर भी पीड़ितों के प्रति बड़े उदार थे। कोई भिखारी इनके दरवाज़े से ख़ाली हाथ नहीं लौटता था। उनके मकान के आगे अन्धे, लंगड़े-लूले अक्सर पड़े रहते थे। मिर्ज़ा उनकी मदद करते रहते थे। एक बार ख़िलअत मिली। चपरासी इनाम लेने आए। घर में पैसे नहीं थे। चुपके से गए, ख़िलअत बेच आए और चपरासियों को उचित इनाम दिया।

आत्म-स्वाभिमान

इस उदार दृष्टि के बावजूद आत्माभिमानी थे- ‘मीर’ जैसे तो नहीं, जिन्होंने दुनिया की हर नामत अपने सम्मान के लिए ठुकराई, फिर भी अपनी इज़्ज़त-आबरू का बड़ा ख़्याल रखते थे। शहर के अनेक सम्भ्रान्त लोगों से परिचय था। लेकिन जो इनके घर पर न आता था, उसके यहाँ कभी नहीं जाते थे। कैसी ग़रीबी हो बाज़ार में बिना पालकी या हवादार के नहीं निकलते थे। कलकत्ता जाते हुए जब लखनऊ ठहरे थे, तो आग़ामीर से इसीलिए नहीं मिले कि उसने उठकर इनका स्वागत करने की शर्त मंज़ूर नहीं की थी। ग़ालिब के आत्म-सम्मान की हालत यह थी कि जब उन्हें दिल्ली कॉलेज में फ़ारसी भाषा के मुख्य अध्यापक का पद पेश किया गया तो अपनी दुरावस्था सुधारने के विचार से वे टामसन साहब (सेक्रेटरी, गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया) के बुलावे पर उनके यहाँ पहुँचे, तो यह देखकर कि टामसन साहब उनके स्वागत के लिए बाहर नहीं आए, उन्होंने कहारों को पालकी वापस ले चलने को कह दिया[1]

गली क़ासिम जान, दिल्ली

सर्व धर्मप्रिय व्यक्ति

वैसे वह शिया मुसलमान थे, पर मज़हब की भावनाओं में बहुत उदार और स्वतंत्र चेता थे। इनकी मृत्यु के बाद ही आगरा से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘ज़ख़ीरा बालगोविन्द’ के मार्च, 1869 के अंक में इनकी मृत्यु पर जो सम्पादकीय लेख छपा था और जो शायद इनके सम्बन्ध में लिखा सबसे पुराना और पहला लेख है, उससे तो एक नई बात मालूम होती है कि यह बहुत पहले चुपचाप ‘फ़्रीमैसन’ हो गए थे और लोगों के बहुत पूछने पर भी उसकी गोपनीयता की अन्त तक रक्षा करते रहे। बहरहाल वह जो भी रहे हों, 'इतना तो तय है कि मज़हब की दासता उन्होंने कभी स्वीकार नहीं की। इनके मित्रों में हर जाति, धर्म और श्रेणी के लोग थे।

ख़ुद का घर न होना

ग़ालिब सदा किराये के मकानों में रहे, अपना मकान न बनवा सके। ऐसा मकान ज़्यादा पसंद करते थे, जिसमें बैठकख़ाना और अन्त:पुर अलग-अलग हों और उनके दरवाज़े भी अलग हों, जिससे यार-दोस्त बेझिझक आ-जा सकें। नौकर 4-4, 5-5 रखते थे। बुरे से बुरे दिनों में भी तीन से कम न रहे। यात्रा में भी 2-3 नौकर साथ रहते थे। इनके पुराने नौकरों में मदारी या मदार ख़ाँ, कल्लु और कल्यान बड़े वफ़ादार रहे। कल्लु तो अन्त तक साथ ही रहा। वह चौदह वर्ष की आयु में मिर्ज़ा के पास आया था और उनके परिवार का ही हो गया था। वह पाँव की आहट से पहिचान लेता था कि लड़कियाँ हैं, बहुएँ हैं या बुढ़िया हैं।

प्रोफ़ेसरी से इन्कार

इन निराशा की घड़ियों में भी मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के सपने पूरे तौर पर टूटे न थे। रस्सी जल गई पर उसमें ऐंठन बाक़ी थी। 1842 ई. में सरकार ने दिल्ली कॉलेज का नूतन संगठन प्रबन्धन किया। उस समय मिस्टर टामसन भारत सरकार के सेक्रेटरी थे। यही बाद में पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर हो गए थे और मिर्ज़ा ग़ालिब के हितैषियों में थे। वह कॉलेज के प्रोफ़ेसरों के चुनाव के लिए दिल्ली आए। उस समय तक वहाँ अरबी भाषा की शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध था और मिस्टर ममलूकअली अरबी के प्रधान शिक्षक थे, जो अपने विषय के अद्वितीय विद्वान् माने जाते थे। पर फ़ारसी भाषा की शिक्षा का कोई संतोषजनक प्रबन्ध न था। टामसन ने इच्छा प्रकट की कि जैसे अरबी की शिक्षा के लिए योग्य अध्यापक हैं, वैसे ही फ़ारसी की शिक्षा देने के लिए भी एक विद्वान् अध्यापक रखा जाए। इस मुआइने के समय सदरुस्सदूर मुफ़्ती सदरुद्दीन ख़ाँ ‘आज़ुर्दा’ भी मौजूद थे। उन्होंने कहा, ‘दिल्ली में तीन साहब फ़ारसी के उस्ताद माने जाते हैं। मिर्ज़ा असदउल्ला ख़ाँ ‘ग़ालिब’, ‘हकीम मोमिन ख़ाँ ‘मोमिन’, और ‘शेख़ इमामबख़्श ‘सहबाई’। टामसन साहब ने प्रोफ़ेसरी के लिए सबसे पहले मिर्ज़ा ग़ालिब को बुलवाया। अगले दिन यह पालकी पर सवार होकर उनके डेरे पर पहुँचे और पालकी से उतरकर दरवाज़े के पास इस प्रतीक्षा में रुक गए कि अभी कोई साहब स्वागत एवं अभ्यर्थना के लिए आते हैं। जब देर हो गई, साहब ने जमादार से देर से आने का कारण पूछा। जमादार ने आकर मिर्ज़ा से दरियाफ़्त किया। मिर्ज़ा ने कह दिया कि चूँकि साहब परम्परानुसार मेरा स्वागत करने बाहर नहीं आए इसीलिए मैं अन्दर नहीं आया। इस पर टामसन साहब स्वयं बाहर निकल आये और बोले, ‘जब आप दरबार में बहैसियत एक रईस या कवि के तशरीफ़ लायेंगे तब आपका स्वागत सत्कार किया जायेगा, लेकिन इस समय आप नौकरी के लिए आये हैं, इसीलिए आपका स्वागत करने कोई नहीं आया।’ मिर्ज़ा ने कहा, ‘मैं तो सरकारी नौकरी इसीलिए करना चाहता था कि ख़ानदानी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो, न कि पहले से जो है, उसमें भी कमी आ जाए और बुज़ुर्गों की प्रतिष्ठा भी खो बैठूँ।’ टामसन साहब ने नियमों के कारण विवशता प्रकट की। तब ग़ालिब ने कहा, ‘ऐसी मुलाज़िमत को मेरा दूर से ही सलाम है, और उन्होंने कहारों से कहा कि वापस चलो।’

मिर्ज़ा ग़ालिब ने फ़ारसी भाषा में कविता करना प्रारंभ किया था और इसी फ़ारसी कविता पर ही इन्हें सदा अभिमान रहा। परंतु यह देव की कृपा है कि, इनकी प्रसिद्धि, सम्मान तथा सर्वप्रियता का आधार इनका छोटा-सा उर्दू का ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ ही है।

मिर्ज़ा के इस रवैये से उनके स्वभाव के एक पहलू पर प्रकाश पड़ता है। इस समय वे बड़े अर्थकष्ट में थे, फिर भी उन्होंने निरर्थक बात पर नौकरी छोड़ दी। आश्चर्य तो यह है कि जन्मभर सरकारी ओहदेदारों एवं अंग्रेज़ अफ़सरों की चापलूसी एवं अत्युक्तिभरी स्तुति में ही बीता (जैसा कि उनके लिखे क़सीदों से स्पष्ट है) पर ज़रा-सी और सारहीन बात पर अड़ गए। इससे यह भी ज्ञात होता है कि इस समय उनमें हीनता का भाव बहुत बड़ा हुआ था और वह तुनकमिज़ाज और क्षणिक भावनाओं की आँधी में उड़ जाने वाले हो गए थे।

ग़ालिब के सम्मान में जारी डाक टिकट

जुए की लत

इधर चिन्ताएँ बढ़ती गईं, जीवन की दश्वारियाँ बढ़ती गईं, उधर बेकारी, शेरोसख़ुन के सिवा कोई दूसरा काम नहीं। स्वभावत: निठल्लेपन की घड़ियाँ दूभर होने लगीं। चिन्ताओं से पलायन में इनकी सहायक एक तो थी शराब, अब जुए की लत भी लग गई। उन्हें शुरू से शतरंज और चौसर खेलने की आदत थी। अक्सर मित्र-मण्डली जमा होती और खेल-तमाशों में वक़्त कटता था। कभी-कभी बाज़ी बदकर खेलते थे। ग़दर के पहले उन्हें बड़ा अर्थकष्ट था। सिर्फ़ सरकारी वृत्ति और क़िले के पचास रुपये थे। पर आदतें रईसों जैसी थीं। यही कारण था कि ये सदा ऋणभार से दबे रहते थे। इस ज़माने की दिल्ली के रईसज़ादों और चाँदनी चौक के जौहरियों के बच्चों ने मनोरंजन के जो साधन ग्रहण कर रखे थे, उनमें से जुआ भी एक था। गंजीफ़ा आमतौर पर खेला जाता था। उनके साथ उठते-बैठते हुए मिर्ज़ा को भी यह लत लग गई। धीरे-धीरे नियमित जुआबाज़ी शुरू हो गई। जुए के अड्डेवाले को सदा कुछ न कुछ मिलता है फिर चाहे कोई जीते या हारे। इससे दिल बहलता था, वक़्त कटता था और कुछ न कुछ आमदनी भी हो जाती थी। आज़ाद लिखते हैं, ‘यह ख़ुद भी खेलते थे और चूँकि अच्छे खिलाड़ी थे, इसीलिए इसमें भी कुछ न कुछ मार ही लेते थे।’ अंग्रेज़ी क़ानून के अनुसार जुआ ज़ुर्म था, पर रईसों के दीवानख़ानों पर पुलिस उतना ध्यान नहीं देती थी, जैसे क्लबों में होने वाले ब्रिज पर आज भी ध्यान नहीं दिया जाता है। कोतवाल एवं बड़े अफ़सर रईसों से मिलते-जुलते रहते थे और परिचय के कारण भी सख़्ती नहीं करते थे। ग़ालिब की जान पहचान भी कोतवाल तथा दूसरे अधिकारियों से थी। इसीलिए इनके ख़िलाफ़ न तो किसी तरह का शुबहा किया जाता था और न क़ानूनी कार्रवाहियों का अंदेशा था।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ग़ालिब जहाँ पर भी जाते थे, चार कहारों की पालकी में बैठकर जाते थे

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