गीता 4:21

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

गीता अध्याय-4 श्लोक-21 / Gita Chapter-4 Verse-21

प्रसंग-


उपर्युक्त श्लोकों में यह बात सिद्ध की गयी कि परमात्मा को प्राप्त सिद्ध महापुरुषों का तो कर्म करने या न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा ज्ञानयोग के साधक का ग्रहण और त्याग शास्त्रसम्मत, आसक्तरहित और ममतारहित होता है; अत: वे कर्म करते हुए या उनका त्याग करते हुए-सभी अवस्थाओं में कर्मबन्धन से सर्वथा मुक्त हैं। अब भगवान् यह बात दिखलाते हैं कि कर्म में अकर्म दर्शन पूर्वक कर्म करने वाला कर्मयोगी भी कर्मबन्धन में नहीं पड़ता-


निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह: ।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वतन्नाप्नोपि किल्बिषम् ।।21।।




जिसका अन्त:करण और इन्द्रियों के सहित शरीर जीता हुआ है और जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है, ऐसा आशारहित पुरुष केवल शरीर-सम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पाप को नहीं प्राप्त होता ।।21।।


Having subdued his mind and body, and given up all objects of enjoyment, and free from craving; he who performs sheer bodily actions, does not incur sin. (21)


यतचित्तात्मा = जीत लिया है अन्त:करण और शरीर जिसने (तथा); त्यक्तसर्वपरिग्रह: = त्याग दी है संपूर्ण भोगों की सामग्री जिसने (ऐसा); निराशी: = आशारहित पुरुष; केवलम् = केवल; शारीरम् = शरीरसम्बन्धी; कर्म = कर्म को; कुर्वन् = करता हुआ (भी); किल्बिषम् = पापको; न = नहीं; आप्रोति = प्राप्त होता है।



अध्याय चार श्लोक संख्या
Verses- Chapter-4

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख