"गीता 15:10": अवतरणों में अंतर

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जीवात्मा को तीनों गुणों से सम्बन्ध, एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाने वाला और शरीर में रहकर विषयों का सेवन करने वाला कहा गया। अतएव यह जिज्ञासा होती है कि ऐसे [[आत्मा]] को कौन कैसे जानता है और कौन नहीं जानता ? इस पर दो [[श्लोक|श्लोकों]] में भगवान् कहते हैं-
 
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10:58, 6 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-15 श्लोक-10 / Gita Chapter-15 Verse-10

प्रसंग-


जीवात्मा को तीनों गुणों से सम्बन्ध, एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में जाने वाला और शरीर में रहकर विषयों का सेवन करने वाला कहा गया। अतएव यह जिज्ञासा होती है कि ऐसे आत्मा को कौन कैसे जानता है और कौन नहीं जानता ? इस पर दो श्लोकों में भगवान् कहते हैं-


उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुष: ।।10।।



शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित हुए को अथवा विषयों को भोगते हुए को इस प्रकार तीनों गुणों से युक्त हुए को भी अज्ञानी जन नहीं जानते, केवल ज्ञान रूप नेत्रों वाले विवेकशील ज्ञानी ही तत्त्व से जानते हैं ।।10।।

The ignorant know not the soul departing from or dwelling in the body, or enjoying the objects of senses i.e., even when it is connected with the three Gunas; only those endowed with the eye of wisdom are able to realize it. (10)


उत्क्रामन्तम् = शरीर छोड कर जाते हुए को ; वा = अथवा ; वा = अथवा ; गुणान्वितम् = तीनों गुणों से युक्त हुए को ; अपि = भी ; विमूढा: = अज्ञानीजन ; न = नहीं ; अनुपश्यन्ति = जानते हैं ; स्थितम् = शरीर में स्थित हुए को (और) ; भुज्जानम् = विषयों कों भोगते हुए को ; ज्ञानचक्षुष: = ज्ञानरूप नेत्रोंवाले (ज्ञानीजन ही) ; पश्यन्ति = तत्त्व से जानते हैं ;



अध्याय पन्द्रह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-15

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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