"गीता 17:25": अवतरणों में अंतर

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तत् अर्थात् 'तत्' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है- इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ, तप रूप क्रियाएँ तथा दान रूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं ।।25।।  
तत् अर्थात् 'तत्' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है- इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की [[यज्ञ]], तप रूप क्रियाएँ तथा दान रूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं ।।25।।  


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13:22, 6 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-17 श्लोक-25 / Gita Chapter-17 Verse-25

प्रसंग-


इस प्रकार ऊँकार के प्रयोग की बात कहकर अब परमेश्वर के 'तत्' नाम के प्रयोग का वर्णन करते हैं-


तदित्यनभिसंधाय फलं यज्ञतप:क्रिया: ।
दानक्रियाश्च विविधा: क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभि: ।।25।।



तत् अर्थात् 'तत्' नाम से कहे जाने वाले परमात्मा का ही यह सब है- इस भाव से फल को न चाहकर नाना प्रकार की यज्ञ, तप रूप क्रियाएँ तथा दान रूप क्रियाएँ कल्याण की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं ।।25।।

With the idea that all this belongs to God, who is denoted by the appellation TAT, acts of sacrifice and austerity as well as acts of charity of various kinds are performed by the seekers of blessedness expecting no return for them.(25)


तत् = तत् अर्थात् तत् नाम से कहे जानेवाले परमात्मा का ही यह सब है ; इति = ऐसे (इस भावसे); फलम् फलको ; मोक्षकाक्ष्डिभि: = कल्याण की इच्छावाले पुरुषों द्वारा ; अनभिसंघाय = न चाहकर ; विविधा: = नाना प्रकार की ; यज्ञतप:क्रिया: = यज्ञ तपरूप क्रियाएं ; च =तथा ; दानक्रिया: = दानरूप क्रियाएं ; क्रियन्ते = की जाती हैं



अध्याय सतरह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-17

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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