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05:49, 14 जून 2011 का अवतरण

गीता अध्याय-17 श्लोक-28 / Gita Chapter-17 Verse-28

प्रसंग-


इस प्रकार श्रद्धापूर्वक किये हुए शास्त्रविहित यज्ञ, तप, दान आदि कर्मों का महत्त्व बतलाया गया; उसे सुनकर यह जिज्ञासा होती है कि जो शास्त्रविहित यज्ञादि कर्म बिना श्रद्धा के किये जाते हैं, उनका क्या फल होता है ? इस पर भगवान् इस अध्याय का उपसंहार करते हुए कहते हैं-


अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ।।28।।



हे <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर में जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त 'असत्'- इस प्रकार कहा जाता है; इसलिये वह न तो इस लोक में लाभदायक है और न मरने के बाद ही ।।28।।

But sacrifices, austerities and charities performed without faith in the Supreme are nonpermanent, O Arjuna, regardless of whatever rites are performed. They are called asat and are useless both in this life and the next.


पार्थ = हे अर्जुन ; अश्रद्धया = बिना श्रद्धा के ; हुतम् = होमा हुआ हवन (तथा) ; दत्तम् = दिया हुआ दान (एवं) ; तप्तम् = तपा हुआ ; इति = ऐसे ; उच्यते = कहा जाता हे (इसलिये) ; तत् = वह ; नो = न (तो) ; इह = इस लोक में ; तप: = तप ; च = और ; यत् = जो (कुछ भी) ; कृतम् = किया हुआ कर्म है ; (तत्) = वह (समस्त) ; असत् = असत् ; च = और ; न = न ; प्रेत्य = मरने के पीछे (ही लाभदायक है)



अध्याय सतरह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-17

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)