"गीता 15:4": अवतरणों में अंतर

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05:51, 14 जून 2011 का अवतरण

गीता अध्याय-15 श्लोक-4 / Gita Chapter-15 Verse-4

प्रसंग-


इस प्रकार वैराग्य रूप शस्त्र द्वारा संसार का छेदन करके क्या करना चाहिए, अब इसे बतलाते हैं-


तत: पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूय: ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यत: प्रवृत्ति: प्रसृता पुराणी ।।4।।



उसके प्रश्चात् उस परम पद रूप परमेश्वर को भली-भाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौटकर संसार में नहीं आते और जिस परमेश्वर से इस पुरातन संसार-वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है, उसी आदि पुरुष नारायण के मैं शरण हूँ- इस प्रकार दृढ निश्चय करके उस परमेश्वर का मनन और निदिध्यासन करना चाहिये ।।4।।

Thereafter a man should diligently seek for that supreme state, viz., God, having attained to which they return no more to this world; and having fully resolved that he stand dedicated to that primeval Being (God Narayana) Himself, from whom the flow of this beginningless creation has progressed, he should dwell and meditate on Him. (4)


तत: = उसके उपरान्त ; तत् = उस ; पदमृ = परमपदरूप परमेश्वर को ; परिमार्गितव्यम् = अच्छी प्रकार खोजना चाहिये (कि) ; यस्मिन् = जिसमें ; गता: = गये हुए पुरुष ; भूय: = फिर ; न निवर्तन्ति = पीछे संसार में नहीं आते हैं ; च = और ; यत: = जिस परमेश्वर से ; पुराणी = पुरातन ; प्रवृत्ति: = संसारवृक्ष की प्रवृत्ति ; प्रसृता = विस्तार को प्राप्त हुई है ; तम् = उस ; एव = ही ; आद्यम् = आदि ; पुरुषम् = पुरुष नारायण के (मैं) ; प्रपद्ये = शरण हूं (इस प्रकार द्य्ढ निश्र्चय करके) ;



अध्याय पन्द्रह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-15

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)