गीता 17:21

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Ashwani Bhatia (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:22, 21 मार्च 2010 का अवतरण (Text replace - "<td> {{महाभारत}} </td> </tr> <tr> <td> {{गीता2}} </td>" to "<td> {{गीता2}} </td> </tr> <tr> <td> {{महाभारत}} </td>")
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

गीता अध्याय-17 श्लोक-21 / Gita Chapter-17 Verse-21

प्रसंग-


अब राजस दान के लक्षण बतलाते हैं-


यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुन:।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ।।21।।



किंन्तु जो दान क्लेशपूर्वक तथा प्रत्युपकार प्रयोजन से अथवा फल को दृष्टि में रखकर फिर दिया जाता है, वह दान राजस कहा गया है ।।21।।

A gift which is bestowed in a grudging spirit and with the object of getting a service in return or in the hope of obtaining a reward, is called Rajas.(21)


तु = और ; परिक्किष्टम् = क्लेशपूर्वक ; च = तथा ; प्रत्युपकारार्थम् = प्रत्युपकार के प्रयोजन से ; वा = अथवा ; फलम् = फलको ; यत् = जो दान ; उद्दिश्य = उद्देश्य रखकर ; पुन: = फिर ; दीयते = दिया जात है ; तत् = वह ; दानम् = दान ; राजसम् = राजस ; स्मृतम् = कहा गया है



अध्याय सतरह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-17

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)