"गीता 4:20": अवतरणों में अंतर
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उपर्युक्त श्लोकों में यह बात कही गयी कि ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार के बिना केवल लोकसंग्रह के लिये शास्त्रसम्मत यज्ञ, दान और तप आदि समस्त कर्म करता हुआ भी ज्ञानी पुरुष वास्तव में कुछ भी नहीं | उपर्युक्त [[श्लोक|श्लोकों]] में यह बात कही गयी कि ममता, आसक्ति, फलेच्छा और अहंकार के बिना केवल लोकसंग्रह के लिये शास्त्रसम्मत [[यज्ञ]], दान और तप आदि समस्त कर्म करता हुआ भी ज्ञानी पुरुष वास्तव में कुछ भी नहीं करता। इसलिये वह कर्मबन्धन में नहीं पड़ता। इस पर यह प्रश्न उठता है कि ज्ञानी को आदर्श मानकर उपर्युक्त प्रकार से कर्म करने वाले साधक तो नित्य-नैमित्तिक आदि कर्मों का त्याग नहीं करते, निष्कामभाव से सब प्रकार के शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मों का अनुष्ठान करते रहते हैं- इस कारण वे किसी पाप के भागी नहीं बनते; किंतु जो साधक शास्त्रविहित यज्ञ-दानादि कर्मों का अनुष्ठान न करके केवल शरीर निर्वाह मात्र के लिये आवश्यक शौच-[[स्नान]] और खान-पान आदि कर्म ही करता है, वह तो पाप का भागी होता होगा। ऐसी शंका की निवृति के लिये भगवान् कहते हैं- | ||
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निराश्रय: = संसारिक आश्रय से रहित; नित्यतृत्त: = सदा परमानन्द परमात्मा में तृप्त है; कर्मफलासड़म् = कर्मों के फल और सग्ड़ | निराश्रय: = संसारिक आश्रय से रहित; नित्यतृत्त: = सदा परमानन्द परमात्मा में तृप्त है; कर्मफलासड़म् = कर्मों के फल और सग्ड़ अर्थात् कर्तृत्व अभिमान को; त्यक्त्वा = त्याग कर; कर्मणि = कर्म में; अभिप्रवृत्त: = अच्छी प्रकार बर्तता हुआ; अपि = भी; किंचित् = कुछ | ||
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07:45, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
गीता अध्याय-4 श्लोक-20 / Gita Chapter-4 Verse-20
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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