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इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला नि:संदेह कुछ भी नहीं है । उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्त:करण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है ।।38।।
इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला नि:संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्त:करण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है ।।38।।


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13:17, 4 जनवरी 2013 का अवतरण

गीता अध्याय-4 श्लोक-38 / Gita Chapter-4 Verse-38

प्रसंग-


इस प्रकार तत्त्व ज्ञान की महिमा कहते हुए उसकी प्राप्ति के सांख्ययोग और कर्मयोग दो उपाय बतलाकर, अब भगवान् उस ज्ञान की प्राप्ति के पात्र का निरूपण करते हुए उस ज्ञान का फल परम शान्ति की प्राप्ति बतलाते हैं –


न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति ।।38।।




इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला नि:संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्त:करण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है ।।38।।


On earth there is no purifier as great as knowledge, he who has attained purity of heart through a prolonged practice of Karmayoga automatically sees the light of truth in the self in course of time.(38)


इह = इस संसार में; ज्ञानेन = ज्ञान के; सदृशम् = समान; पवित्रम् = पवित्र करने वाला; हि = नि:सन्देह (कुछ भी) न = नहीं; विद्यते = है; तत् = उन ज्ञान को; कालेन = कितने काल से; स्वयम् = अपने आप; योगसंसिद्व: = समत्वबुद्वि रूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार शुद्वान्त:करण हुआ पुरुष; आत्मनि = आत्मा में; विन्दति = अनुभव करता है



अध्याय चार श्लोक संख्या
Verses- Chapter-4

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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