हे भरतवंशी अर्जुन[1] ! संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख-दु:खादि द्वन्द्वरूप मोह से सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञानता को प्राप्त हो रहे हैं ।।27।।
|
O valiant Arjuna, through delusion in the shape of pairs of opposites (such as pleasure and pain etc.), born of desire and hatred, all living creatures in this world are falling a prey to infatuation. (27)
|