"गीता 9:23": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
छो (1 अवतरण)
No edit summary
 
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
<table class="gita" width="100%" align="left">
<table class="gita" width="100%" align="left">
<tr>
<tr>
पंक्ति 9: पंक्ति 8:
'''प्रसंग-'''
'''प्रसंग-'''
----
----
पूर्वश्लोकों में भगवान् ने समस्त विश्व को अपना स्वरूप बताया कि यज्ञों द्वारा की जाने वाली देव पूजा को प्रकारान्तर से अपनी ही पूजा बताकर उसका फल आवागमन के चक्र में पड़ना और अपने अनन्य भक्त की उपासना का फल उसे अपनी प्राप्ति करा देना कैसे बताया ? इस पर कहते हैं –
पूर्व [[श्लोक|श्लोकों]] में भगवान् ने समस्त विश्व को अपना स्वरूप बताया कि यज्ञों द्वारा की जाने वाली देव पूजा को प्रकारान्तर से अपनी ही [[पूजा]] बताकर उसका फल आवागमन के चक्र में पड़ना और अपने अनन्य [[भक्त]] की उपासना का फल उसे अपनी प्राप्ति करा देना कैसे बताया? इस पर कहते हैं –
----
----
<div align="center">
<div align="center">
पंक्ति 22: पंक्ति 21:
|-
|-
| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"|
| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"|
हे <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था।
हे [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> ! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे [[देवता|देवताओं]] को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है ।।23।।  
¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> ! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है ।।23।।  


| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"|
| style="width:50%; font-size:120%;padding:10px;" valign="top"|
पंक्ति 56: पंक्ति 54:
<tr>
<tr>
<td>
<td>
{{महाभारत}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
==संबंधित लेख==
{{गीता2}}
</td>
</td>
</tr>
</tr>
<tr>
<tr>
<td>
<td>
{{गीता2}}
{{महाभारत}}
</td>
</td>
</tr>
</tr>

10:58, 5 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-9 श्लोक-23 / Gita Chapter-9 Verse-23

प्रसंग-


पूर्व श्लोकों में भगवान् ने समस्त विश्व को अपना स्वरूप बताया कि यज्ञों द्वारा की जाने वाली देव पूजा को प्रकारान्तर से अपनी ही पूजा बताकर उसका फल आवागमन के चक्र में पड़ना और अपने अनन्य भक्त की उपासना का फल उसे अपनी प्राप्ति करा देना कैसे बताया? इस पर कहते हैं –


येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता: ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।।23।।



हे अर्जुन[1] ! यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है ।।23।।

Arjuna, even those devotees who, endowed with faith, worship other gods (with some interested motive) worship me alone, though with a mistaken a approach. (23)


कौन्तेय = हे अर्जुन ; अपि = यद्यपि ; श्रद्धया = श्रद्धा से ; अन्विता: = युक्त हुए ; ये = जो ; भक्ता: = सकामी भक्त ; अन्यदेवता: = दूसरे देवताओं को ; यजन्ते = पूजते हैं ; ते = वे ; अपि = भी ; माम् = मेरे को ; एव = ही ; यजन्ति = पूजते हैं (किन्तु उनका वह पूजना ) ; अविधिपूर्वकम् = अविधिपूर्वक है अर्थात् अज्ञानपूर्वक है ;



अध्याय नौ श्लोक संख्या
Verses- Chapter-9

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

संबंधित लेख