"गीता 9:33": अवतरणों में अंतर

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फिर इसमें तो कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्राण तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं । इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर ।।33।।
फिर इसमें तो कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्राण तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं। इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर ।।33।।


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11:24, 5 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-9 श्लोक-33 / Gita Chapter-9 Verse-33

किं पुनर्ब्राह्राणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।।33।।



फिर इसमें तो कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्राण तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं। इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर ।।33।।

How much more, then, holy Brahmanas and royal sages devoted to me ! therefore, having obtained this joyless and transient human life, constantly worship me. (33)


पुन: = फिर;किम् = क्या; (वक्तव्यम्) = कहना है (कि)श पुण्याय = पुण्यशील; राजर्षय: = राऋषि; भक्ता: = भक्तजन(परमगति को); (यान्ति) = प्राप्त होते हैं; (अतJ = इसलिये (तूं); असुखम् = सुखरहित(और); अनित्यम् = क्षणभ्गडुर; इमम् = इस; लोकम् = मनुष्यशरीरको; प्राप्य = प्राप्त होकर; माम् भजस्व = (निरन्तर) मेरा ही भजन कर ;



अध्याय नौ श्लोक संख्या
Verses- Chapter-9

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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