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05:56, 14 जून 2011 का अवतरण

गीता अध्याय-9 श्लोक-10 / Gita Chapter-9 Verse-10

प्रसंग-


'उदासीनवदासीनम्' इस पद से भगवान् में जो कर्तापन का अभाव दिखलाया गया, अब उस को स्पष्ट करने के लिये कहते हैं-


मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।।10।।



हे <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर में जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> ! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति चराचर सहित सर्व जगत् को रचती है और इस हेतु से ही यह संसार चक्र घूम रहा है ।।10।।

Arjuna; with me as the supervisor, nature brings forth the whole creation, consisting of both sentient and insentient beings; it is due to this cause that the wheel of world is going round. (10)


कौन्तेय = हे अर्जुन ; मया = मुझ ; अध्यक्षेण = अधिष्ठाता के सकाश से (यह मेरी) ; प्रकृति: = माया ; सचराचरम् = चराचरसहित सर्व जगत् को ; सूयते = रचती है (और) ; अनेन = इस (ऊपर कहे हुए) ; हेतुना = हेतु से (ही) ; जगत् = यह संसार ; विपरिवर्तते = आवागमनरूप चक्र में घूमता है ;



अध्याय नौ श्लोक संख्या
Verses- Chapter-9

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)