गीता 9:33

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
Ashwani Bhatia (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:21, 19 मार्च 2010 का अवतरण (Text replace - '<td> {{गीता अध्याय}} </td>' to '<td> {{गीता अध्याय}} </td> </tr> <tr> <td> {{महाभारत}} </td> </tr> <tr> <td> {{गीता2}} </td>')
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें

गीता अध्याय-9 श्लोक-33 / Gita Chapter-9 Verse-33

किं पुनर्ब्राह्राणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा ।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम् ।।33।।



फिर इसमें तो कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्राण तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं । इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर ।।33।।

How much more, then, holy Brahmanas and royal sages devoted to me ! therefore, having obtained this joyless and transient human life, constantly worship me. (33)


पुन: = फिर;किम् = क्या; (वक्तव्यम्) = कहना है (कि)श पुण्याय = पुण्यशील; राजर्षय: = राऋषि; भक्ता: = भक्तजन(परमगति को); (यान्ति) = प्राप्त होते हैं; (अतJ = इसलिये (तूं); असुखम् = सुखरहित(और); अनित्यम् = क्षणभ्गडुर; इमम् = इस; लोकम् = मनुष्यशरीरको; प्राप्य = प्राप्त होकर; माम् भजस्व = (निरन्तर) मेरा ही भजन कर ;



अध्याय नौ श्लोक संख्या
Verses- Chapter-9

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)