"गीता 2:5": अवतरणों में अंतर
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'''प्रसंग-''' | '''प्रसंग-''' | ||
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इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर देने पर भी जब < | इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर देने पर भी जब [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> को सन्तोष नहीं हुआ और अपने निश्चय में शंका उत्पन्न हो गयी, तब वे फिर कहने लगे- | ||
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'''श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।'''<br/> | '''श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके ।'''<br/> | ||
'''हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव |'''<br/> | '''हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव |'''<br/> | ||
'''भुज्जीय | '''भुज्जीय भोगान्रुधिर प्रदिग्धान् ।।5।।''' | ||
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इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अत्र भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ । क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में | इसलिये इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर मैं इस लोक में भिक्षा का अत्र भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ । क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा ।।5।। | ||
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महानुभावान् = महानुभाव; गुरुन् = गुरुजनोंको ; अहत्वा = न मारकर ; इह =इस ; लोके = लोकमें ; भैक्ष्यम् = भिक्षाका अन्न ; अपि = भी ; भोक्तुम् = भोगना ; श्रेय: = कल्याणकारक (समझता हूं) ; हि = क्योंकि ; गुरुन् = गुरुजनोंको ; हत्वा = मारकर ; (अपि) = भी ; इह = इस लोकमें ; | महानुभावान् = महानुभाव; गुरुन् = गुरुजनोंको ; अहत्वा = न मारकर ; इह =इस ; लोके = लोकमें ; भैक्ष्यम् = भिक्षाका अन्न ; अपि = भी ; भोक्तुम् = भोगना ; श्रेय: = कल्याणकारक (समझता हूं) ; हि = क्योंकि ; गुरुन् = गुरुजनोंको ; हत्वा = मारकर ; (अपि) = भी ; इह = इस लोकमें ; रुधिर प्रदिग्घान् = रुधिर से सने हुए ; अर्थकामान् = अर्थ और कामरूप ; भोगान् = भोगोंको ; एव = ही ; तु = तो ; भुझीय = भोगूंगा ; एतत् = यह ; च = भी ; | ||
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05:46, 4 जनवरी 2013 के समय का अवतरण
गीता अध्याय-2 श्लोक-5 / Gita Chapter-2 Verse-5
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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