"गीता 2:42-43-44": अवतरणों में अंतर
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इस प्रकार भोग और ऐश्वर्य में आसक्त सकाम मनुष्यों में निश्चयात्मिका बुद्धि के न होने की बात कहकर अब कर्मयोग का उपदेश देने के उद्देश्य से पहले भगवान् अर्जुन को उपर्युक्त भोग और ऐश्वर्य में आसक्ति रहित होकर समभाव से संपन्न होने के लिये कहते हैं- | इस प्रकार भोग और ऐश्वर्य में आसक्त सकाम मनुष्यों में निश्चयात्मिका बुद्धि के न होने की बात कहकर अब कर्मयोग का उपदेश देने के उद्देश्य से पहले भगवान् [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> को उपर्युक्त भोग और ऐश्वर्य में आसक्ति रहित होकर समभाव से संपन्न होने के लिये कहते हैं- | ||
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हे | हे [[अर्जुन]] ! जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं, जो कर्म फल के प्रशंसक वेद-वाक्यों में प्रीति रखते हैं, जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है- ऐसा कहने वाले हैं- वे अविवेकी जन इस प्रकार की जिस पुष्पित यानी दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं जो कि जन्म रूप कर्म फल देने वाली एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है, उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है, जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं, उन पुरुषों की परमात्मा में निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती ।।42-43-44।। | ||
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08:07, 4 जनवरी 2013 के समय का अवतरण
गीता अध्याय-2 श्लोक-42,43,44 / Gita Chapter-2 Verse-42,43,44
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टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख |
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