"गीता 7:3": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
छो (Text replace - "हजार" to "हज़ार")
No edit summary
 
(एक दूसरे सदस्य द्वारा किए गए बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
<table class="gita" width="100%" align="left">
<table class="gita" width="100%" align="left">
<tr>
<tr>
पंक्ति 9: पंक्ति 8:
'''प्रसंग-'''
'''प्रसंग-'''
----
----
यहाँ तक भगवान् ने अपने समग्र स्वरूप के ज्ञान-विज्ञान कहने की प्रतिज्ञा और उसकी प्रशंसा की, अब ज्ञान-विज्ञान के प्रकरण का आरम्भ करते हुए पहले अपनी 'अपरा' और 'परा' प्रकृतियों का स्वरूप बतलाते हैं-  
यहाँ तक भगवान् ने अपने समग्र स्वरूप के ज्ञान-[[विज्ञान]] कहने की प्रतिज्ञा और उसकी प्रशंसा की, अब ज्ञान-विज्ञान के प्रकरण का आरम्भ करते हुए पहले अपनी 'अपरा' और 'परा' प्रकृतियों का स्वरूप बतलाते हैं-  
----
----
<div align="center">
<div align="center">
पंक्ति 34: पंक्ति 33:
|-
|-
| style="width:100%;text-align:center; font-size:110%;padding:5px;" valign="top" |
| style="width:100%;text-align:center; font-size:110%;padding:5px;" valign="top" |
सहस्त्रेषु = हज़ारों ; मनुष्याणाम् = मनुष्यों में ; कश्र्चित् = कोई ही मनुष्य; सिद्वये = मेरी प्राप्ति के लिये; यतति = यन्त्र करता है; यतताम् = उन यन्त्र करने वाले; सिद्वानाम् = योगियों में; अपि = भी; कश्वित् = कोई ही पुरुष (मेरे परायण हुआ); माम= मेरे को; तत्वत्: = तत्व से; वेत्ति =जानता है अर्थात् यथार्थ मर्मसे जानता है।  
सहस्त्रेषु = हज़ारों ; मनुष्याणाम् = मनुष्यों में ; कश्र्चित् = कोई ही मनुष्य; सिद्वये = मेरी प्राप्ति के लिये; यतति = यन्त्र करता है; यतताम् = उन यन्त्र करने वाले; सिद्वानाम् = योगियों में; अपि = भी; कश्वित् = कोई ही पुरुष (मेरे परायण हुआ); माम= मेरे को; तत्वत्: = तत्त्व से; वेत्ति =जानता है अर्थात् यथार्थ मर्मसे जानता है।  
|-
|-
|}
|}
पंक्ति 58: पंक्ति 57:
<tr>
<tr>
<td>
<td>
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
==संबंधित लेख==
{{गीता2}}
{{गीता2}}
</td>
</td>

07:21, 5 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-7 श्लोक-3 / Gita Chapter-7 Verse-3

प्रसंग-


यहाँ तक भगवान् ने अपने समग्र स्वरूप के ज्ञान-विज्ञान कहने की प्रतिज्ञा और उसकी प्रशंसा की, अब ज्ञान-विज्ञान के प्रकरण का आरम्भ करते हुए पहले अपनी 'अपरा' और 'परा' प्रकृतियों का स्वरूप बतलाते हैं-


मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत: ।।3।।



हज़ारों मनुष्यों में कोई एक मेरे प्राप्ति के लिये यत्न करता है और उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई एक मेरे परायण होकर मुझको तत्त्व से अर्थात् यथार्थ रूप से जानता है ।।3।।

Hardly one among thousands of men strives to ralize me; of those striving yogis, again, some rare one devoting himself exclusively to me knows me in reality. (3)


सहस्त्रेषु = हज़ारों ; मनुष्याणाम् = मनुष्यों में ; कश्र्चित् = कोई ही मनुष्य; सिद्वये = मेरी प्राप्ति के लिये; यतति = यन्त्र करता है; यतताम् = उन यन्त्र करने वाले; सिद्वानाम् = योगियों में; अपि = भी; कश्वित् = कोई ही पुरुष (मेरे परायण हुआ); माम= मेरे को; तत्वत्: = तत्त्व से; वेत्ति =जानता है अर्थात् यथार्थ मर्मसे जानता है।



अध्याय सात श्लोक संख्या
Verses- Chapter-7

1 | 2 | 3 | 4, 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख