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इस प्रकार मनुष्य के रूप में प्रकट सर्वशक्तिमान परमेश्वर को लोग साधारण मनुष्य क्यों समझते हैं ? इस पर कहते हैं-  
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बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्म कर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं ।।24।।  
बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-[[इन्द्रियाँ|इन्द्रियों]] से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्म कर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं ।।24।।  


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==संबंधित लेख==
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08:14, 5 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-7 श्लोक-24 / Gita Chapter-7 Verse-24

प्रसंग-


इस प्रकार मनुष्य के रूप में प्रकट सर्वशक्तिमान परमेश्वर को लोग साधारण मनुष्य क्यों समझते हैं? इस पर कहते हैं-


अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय: ।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।24।।



बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मन-इन्द्रियों से परे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जन्म कर व्यक्ति भाव को प्राप्त हुआ मानते हैं ।।24।।

Not knowing me unsurpassable and undecaying supreme nature, the ignorant believe Me, the supreme spirit beyond the reach of mind and senses, the embodiment of truth, knowledge and bliss, to have assumed a finite form through birth (as an ordinary human being)(24)


अबुद्धय: = बुद्धिहीन पुरुष ; मम = मेरे ; अनुत्तमम् = अनुत्तम अर्थात् जिससे उत्तम और कुछ भी नहीं ऐसे ; अव्ययम् = अविनाशी ; परम् = परम ; भावम् = भावको अर्थात् अजन्मा अविनाशी हुआ भी अपनी माया से प्रकट होता हूं ऐसे प्रभाव को ; अजानन्त: = तत्त्वसे न जानते हुए ; अव्यक्तम् = मन इन्द्रियों से परे ; माम् = मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा को (मनुष्य की भांति जन्मकर) ; व्यक्तिम् = व्यक्तिभाव को ; आपन्नम् = प्राप्त हुआ ; मन्यन्ते = मानते हैं



अध्याय सात श्लोक संख्या
Verses- Chapter-7

1 | 2 | 3 | 4, 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29, 30

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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