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08:46, 4 जनवरी 2013 का अवतरण

गीता अध्याय-2 श्लोक-57 / Gita Chapter-2 Verse-57

प्रसंग-


इस प्रकार वापस न लौटने वालों के मार्ग का वर्णन करके अब जिस मार्ग से गये हुए साधक वापस लौटते हैं, उसका वर्णन किया जाता है- प्रसंग- 'स्थिर बुद्धि वाला योगी कैसे बोलता है ?' इस दूसरे प्रश्न का उत्तर समाप्त करके अब भगवान् 'वह कैसे बैठता है ?' इस तीसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए यह दिखलाते हैं कि स्थित प्रज्ञ पुरुष की इन्द्रियाँ का सर्वथा उसके वश में हो जाना और आसक्ति से रहित होकर अपने-अपने विषयों से उपरत हो जाना ही स्थित प्रज्ञ पुरुष का बैठना है-


य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।।57।।




जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है ।।57।।


He who is unattached to everything , and meeting with good and evil, neither rejoices nor recoils, his mind is stable.(57)


य: = जो पुरुष ; सर्वत्र = सर्वत्र ; अनभिस्नेह: = स्नेहरहित हुआ ; प्राप्य = प्राप्त होकर ; न = न ; अभिनन्दति = प्रसन्न होता है (और) ; तत् तत् = उस उस ; शुभाशुभम् = अशुभ (वस्तुओं) को ; द्वेष्टि = द्वेष करता है ; तस्य = उसकी ; प्रज्ञा = बुद्धि ; प्रतिष्ठिता = स्थिर है



अध्याय दो श्लोक संख्या
Verses- Chapter-2

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 , 43, 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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