अन्त:करण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दु:खों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है ।।65।।
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With the attainment of such placidity of mind, all his sorrows come to an end; and the intellect of such a person of tranquil mind, soon withdrawing itself from all sides, becomes firmly established in god. (65)
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