हे जनार्दन[1] ! अपनी योग शक्ति को और विभूति को फिर भी विस्तारपूर्वक कहिये, क्योंकि आपके अमृतमय वचनों को सुनते हुए मेरी तृप्ति नहीं होती अर्थात् सुनने की उत्कण्ठा बनी ही रहती है ।।18।।
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Krishna, tell me once more in detail your power of Yoga and your glory; for I know no satiety in hearing your nectar-like words.(18)
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