"हरिवंश राय बच्चन" के अवतरणों में अंतर
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+ | {{सूचना बक्सा साहित्यकार | ||
+ | |चित्र=Harivanshrai-Bachchan.jpg | ||
+ | |पूरा नाम=हरिवंश राय बच्चन | ||
+ | |अन्य नाम= | ||
+ | |जन्म=[[27 नवंबर]], [[1907]] ई. | ||
+ | |जन्म भूमि=[[इलाहाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]] | ||
+ | |मृत्यु=[[18 जनवरी]], [[2003]] ई. | ||
+ | |मृत्यु स्थान=[[मुंबई]], [[महाराष्ट्र]] | ||
+ | |अभिभावक=प्रताप नारायण श्रीवास्तव, सरस्वती देवी | ||
+ | |पति/पत्नी=श्यामा बच्चन, [[तेज़ीबच्चन|तेज़ीसूरी]] | ||
+ | |संतान=[[अमिताभ बच्चन]], अजिताभ बच्चन | ||
+ | |कर्म भूमि=[[इलाहाबाद]] | ||
+ | |कर्म-क्षेत्र=अध्यापक, लेखक, कवि | ||
+ | |मुख्य रचनाएँ=[[मधुशाला]], मधुबाला, [[मधुकलश -हरिवंशराय बच्चन|मधुकलश]], तेरा हार, [[निशा निमंत्रण -हरिवंशराय बच्चन|निशा निमंत्रण]], मैकबेथ, जनगीता, दो चट्टाने | ||
+ | |विषय=कविता, कहानी, आत्मकथा/रचनावली | ||
+ | |भाषा=[[हिन्दी]] | ||
+ | |विद्यालय=[[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]], कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय | ||
+ | |शिक्षा=एम. ए. (अंग्रेज़ी), पी. एच. डी. | ||
+ | |पुरस्कार-उपाधि=[[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]] ([[1968]]), सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार, [[सरस्वती सम्मान]], [[पद्म भूषण]] ([[1976]]) | ||
+ | |प्रसिद्धि= | ||
+ | |विशेष योगदान= | ||
+ | |नागरिकता=भारतीय | ||
+ | |संबंधित लेख=[[अमिताभ बच्चन]], [[अभिषेक बच्चन]], [[जया बच्चन]], [[ऐश्वर्या राय बच्चन]] | ||
+ | |शीर्षक 1= | ||
+ | |पाठ 1= | ||
+ | |शीर्षक 2= | ||
+ | |पाठ 2= | ||
+ | |अन्य जानकारी=हरिवंशराय बच्चन ने महू और सागर में फ़ौजी प्रशिक्षण लिया था और लेफ्टिनेंट बनकर कंधे पर दो सितारे लगाने का अधिकार पाया था। | ||
+ | |बाहरी कड़ियाँ= | ||
+ | |अद्यतन= | ||
+ | }} | ||
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+ | | style="width:18em; float:right;"| | ||
+ | <div style="border:thin solid #a7d7f9; margin:10px"> | ||
+ | {| align="center" | ||
+ | ! हरिवंश राय बच्चन की रचनाएँ | ||
+ | |} | ||
+ | <div style="height: 250px; overflow:auto; overflow-x: hidden; width:99%"> | ||
+ | {{हरिवंश राय बच्चन की रचनाएँ}} | ||
+ | </div></div> | ||
+ | |} | ||
+ | '''हरिवंश राय बच्चन''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Harivansh Rai Bachchan'', जन्म: [[27 नवंबर]], [[1907]]; मृत्यु: [[18 जनवरी]], [[2003]]) [[हिन्दी भाषा]] के प्रसिद्ध [[कवि]] और लेखक थे। इनकी प्रसिद्धि इनकी कृति '[[मधुशाला]]' के लिये अधिक है। हरिवंश राय बच्चन के पुत्र [[अमिताभ बच्चन]] [[भारतीय सिनेमा]] जगत के प्रसिद्ध सितारे हैं। | ||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
− | इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश | + | 27 नवंबर, 1907 को [[इलाहाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]] में जन्मे हरिवंश राय बच्चन [[हिन्दू]] कायस्थ [[परिवार]] से संबंध रखते हैं। यह 'प्रताप नारायण श्रीवास्तव' और 'सरस्वती देवी' के बड़े पुत्र थे। इनको बाल्यकाल में 'बच्चन' कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ 'बच्चा या संतान' होता है। बाद में हरिवंश राय बच्चन इसी नाम से मशहूर हुए। [[1926]] में 19 वर्ष की उम्र में उनका [[विवाह संस्कार|विवाह]] 'श्यामा बच्चन' से हुआ जो उस समय 14 वर्ष की थी। लेकिन [[1936]] में श्यामा की टी.बी के कारण मृत्यु हो गई। पाँच साल बाद [[1941]] में बच्चन ने [[पंजाब]] की [[तेज़ीबच्चन|तेज़ीसूरी]] से विवाह किया जो [[रंगमंच]] तथा गायन से जुड़ी हुई थीं। इसी समय उन्होंने 'नीड़ का पुनर्निर्माण' जैसे कविताओं की रचना की। [[तेज़ीबच्चन]] से अमिताभ तथा अजिताभ दो पुत्र हुए। अमिताभ बच्चन एक प्रसिद्ध [[अभिनेता]] हैं। तेज़ीबच्चन ने हरिवंश राय बच्चन द्वारा 'शेक्सपीयर' के अनुदित कई नाटकों में अभिनय किया है। |
− | ==शिक्षा== | + | ====शिक्षा==== |
− | हरिवंश राय बच्चन की शिक्षा एम. ए. | + | हरिवंश राय बच्चन की शिक्षा [[इलाहाबाद]] तथा 'कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों' में हुई। इन्होंने कायस्थ पाठशालाओं में पहले [[उर्दू]] की शिक्षा ली जो उस समय क़ानून की डिग्री के लिए पहला क़दम माना जाता था। इसके बाद उन्होंने [[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]] से [[अंग्रेज़ी]] में एम. ए. और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. किया। |
− | == | + | ==कार्यक्षेत्र== |
− | हरिवंश राय बच्चन अनेक वर्षों तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में प्राध्यापक रहे। कुछ समय के लिए हरिवंश राय बच्चन आकाशवाणी के साहित्यिक कार्यक्रमों से सम्बद्ध रहे। फिर 1955 ई. में | + | हरिवंश राय बच्चन अनेक वर्षों तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में प्राध्यापक रहे। कुछ समय के लिए हरिवंश राय बच्चन आकाशवाणी के साहित्यिक कार्यक्रमों से सम्बद्ध रहे। फिर [[1955]] ई. में वह विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ होकर [[दिल्ली]] चले गये। [[विश्वविद्यालय|विश्वविद्यालयों]] के दिनों में इन्होंने कैम्ब्रिज जाकर [[1952]]-[[1954]] ई. में अंग्रेज़ी कवि यीट्स पर शोध प्रबन्ध लिखा, जो काफ़ी प्रशंसित हुआ। |
− | ==साहित्यिक | + | ==साहित्यिक परिचय== |
− | 'बच्चन' की कविता के साहित्यिक | + | [[चित्र:Pant amitabh.jpg|left|thumb|250px|बच्चन जी अपने महानायक पुत्र [[अमिताभ बच्चन|अमिताभ]] व महाकवि [[सुमित्रानंदन पंत]] के साथ]] |
− | ==सर्वग्राह्य और | + | 'बच्चन' की कविता के साहित्यिक महत्त्व के बारे में अनेक मत हैं। 'बच्चन' के काव्य की विलक्षणता उनकी लोकप्रियता है। यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि आज भी हिन्दी के ही नहीं, सारे [[भारत]] के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में 'बच्चन' का स्थान सुरक्षित है। इतने विस्तृत और विराट श्रोतावर्ग का विरले ही कवि दावा कर सकते हैं। |
− | 'बच्चन' की कविता इतनी सर्वग्राह्य और | + | ====सर्वग्राह्य और सर्वप्रिय==== |
− | == | + | 'बच्चन' की कविता इतनी सर्वग्राह्य और सर्वप्रिय है क्योंकि 'बच्चन' की लोकप्रियता मात्र पाठकों के स्वीकरण पर ही आधारित नहीं थी। जो कुछ मिला वह उन्हें अत्यन्त रुचिकर जान पड़ा। वे छायावाद के अतिशय सुकुमार्य और माधुर्य से, उसकी अतीन्द्रिय और अति वैयक्तिक सूक्ष्मता से, उसकी लक्षणात्मक अभिव्यंजना शैली से उकता गये थे। [[उर्दू]] की गज़लों में चमक और लचक थी, दिल पर असर करने की ताक़त थी, वह सहजता और संवेदना थी, जो पाठक या श्रोता के मुँह से बरबस यह कहलवा सकती थी कि, '''मैंने पाया यह कि गोया वह भी मेरे दिल में है।''' मगर हिन्दी कविता जनमानस और जन रुचि से बहुत दूर थी। 'बच्चन' ने उस समय ([[1935]] से [[1940]] ई. के व्यापक खिन्नता और अवसाद के युग में) मध्यवर्ग के विक्षुब्ध, वेदनाग्रस्त मन को वाणी का वरदान दिया। उन्होंने सीधी, सादी, जीवन्त [[भाषा]] और सर्वग्राह्य, गेय शैली में, छायावाद की लाक्षणिक वक्रता की जगह संवेदनासिक्त अभिधा के माध्यम से, अपनी बात कहना आरम्भ किया और हिन्दी काव्य रसिक सहसा चौंक पड़ा, क्योंकि उसने पाया यह कि वह भी उसके दिल में है। 'बच्चन' ने प्राप्त करने के उद्देश्य से चेष्टा करके यह राह ढूँढ निकाली और अपनायी हो, यह बात नहीं है, वे अनायास ही इस राह पर आ गये। उन्होंने अनुभूति से प्रेरणा पायी थी, अनुभूति को ही काव्यात्मक अभिव्यक्ति देना उन्होंने अपना ध्येय बनाया।[[चित्र:Harivanshrai-bachchan.jpg|thumb|left|हरिवंश राय बच्चन]] |
− | + | ====पहला काव्य संग्रह==== | |
− | == | + | एक प्रकाशन 'तेरा हार' पहले भी प्रकाशित हो चुका था, पर 'बच्चन' का पहला काव्य संग्रह 1935 ई. में प्रकाशित '[[मधुशाला]]' से ही माना जाता है। इसके प्रकाशन के साथ ही 'बच्चन' का नाम एक गगनभेदी रॉकेट की तरह तेज़ी से उठकर साहित्य जगत पर छा गया। 'मधुबाला', '[[मधुशाला]]' और '[[मधुकलश -हरिवंशराय बच्चन|मधुकलश]]'-एक के बाद एक, ये तीनों संग्रह शीघ्र ही सामने आ गये हिन्दी में जिसे 'हालावाद' कहा गया है। ये उस काव्य पद्धति के धर्म ग्रन्थ हैं। उस काव्य पद्धति के संस्थापक ही उसके एकमात्र सफल साधक भी हुए, क्योंकि जहाँ 'बच्चन' की पैरोडी करना आसान है, वहीं उनका सच्चे अर्थ में, अनुकरण असम्भव है। '''अपनी सारी सहज सार्वजनीनता के बावजूद 'बच्चन' की कविता नितान्त वैयक्तिक, आत्म-स्फूर्त और आत्मकेन्द्रित है।''' |
− | |||
==प्रेरणा== | ==प्रेरणा== | ||
− | 'बच्चन' ने इस ' | + | 'बच्चन' ने इस 'हालावाद' के द्वारा व्यक्ति जीवन की सारी नीरसताओं को स्वीकार करते हुए भी उससे मुँह मोड़ने के बजाय उसका उपयोग करने की, उसकी सारी बुराइयों और कमियों के बावज़ूद जो कुछ मधुर और आनन्दपूर्ण होने के कारण गाह्य है, उसे अपनाने की प्रेरणा दी। उर्दू कवियों ने 'वाइज़' और 'बज़ा', मस्जिद और मज़हब, क़यामत और उक़वा की परवाह न करके दुनिया-ए-रंगों-बू को निकटता से, बार-बार देखने, उसका आस्वादन करने का आमंत्रण दिया है। ख़्याम ने वर्तमान क्षण को जानने, मानने, अपनाने और भली प्रकार इस्तेमाल करने की सीख दी है, और 'बच्चन' के 'हालावाद' का जीवन-दर्शन भी यही है। यह पलायनवाद नहीं है, क्योंकि इसमें वास्तविकता का अस्वीकरण नहीं है, न उससे भागने की परिकल्पना है, प्रत्युत्त वास्तविकता की शुष्कता को अपनी मनस्तरंग से सींचकर हरी-भरी बना देने की सशक्त प्रेरणा है। यह सत्य है कि 'बच्चन' की इन कविताओं में रूमानियत और क़सक़ है, पर '''हालावाद ग़म ग़लत करने का निमंत्रण है; ग़म से घबराकर ख़ुदक़शी करने का नहीं।''' |
==सर्वोत्कृष्ट काव्योपलब्धि== | ==सर्वोत्कृष्ट काव्योपलब्धि== | ||
− | अपने जीवन की इस मंज़िल में 'बच्चन' अपने युवाकाल के आदर्शों और स्वप्नों के भग्नावशेषों के बीच से गुज़र रहे थे। पढ़ाई छोड़कर राष्ट्रीय आंदोलन में क़ूद पड़े थे। अब उस आंदोलन की विफलता | + | [[चित्र:Harivanshrai-bachchan-sumitra-nandan-pant-ramdhari-singh-dinkar.jpg|thumb|300px|हरिवंशराय बच्चन, [[सुमित्रानंदन पंत]] और [[रामधारी सिंह 'दिनकर']]]] |
− | + | अपने जीवन की इस मंज़िल में 'बच्चन' अपने युवाकाल के आदर्शों और स्वप्नों के भग्नावशेषों के बीच से गुज़र रहे थे। पढ़ाई छोड़कर राष्ट्रीय आंदोलन में क़ूद पड़े थे। अब उस आंदोलन की विफलता का कड़वा घूँट पी रहे थे। एक छोटे से स्कूल में अध्यापक की नौकरी करते हुए वास्तविकता और आदर्श के बीच की गहरी खाई में डूब रहे थे। इस अभाव की दशा में पत्नी के असाध्य रोग की भयंकरता देख रहे थे, अनिवार्य विद्रोह के आतंक से त्रस्त और व्यथित थे। परिणामत: 'बच्चन' का कवि अधिकाधिक अंतर्मुखी होता गया। इस युग और इस 'मूड' की कविताओं के संग्रह '[[निशा निमंत्रण -हरिवंशराय बच्चन|निशा निमंत्रण]]' ([[1938]] ई.) तथा 'एकान्त संगीत' 'बच्चन' की सम्भवत: सर्वोत्कृष्ट काव्योपलब्धि हैं। वैयक्तिक, व्यावहारिक जीवन में सुधार हुआ। अच्छी नौकरी मिली, 'नीड़ का निर्माण फिर' से करने की प्रेरणा और निमित्त की प्राप्ति हुई। 'बच्चन' ने अपने जीवन के इस नये मोड़ पर फिर आत्म-साक्षात्कार किया, मन को समझाते हुए पूछा,<blockquote>"जो बसे हैं, वे उजड़ते हैं, प्रकृति के जड़ नियम से, पर किसी उजड़े हुए को फिर से बसाना कब मना है?<ref>[[अँधेरे का दीपक -हरिवंश राय बच्चन]]</ref>"</blockquote> | |
− | + | *परम निर्मल मन से 'बच्चन' ने स्वीकार किया है कि<blockquote>"है चिता की राख कर में, माँगती सिन्दूर दुनियाँ"- व्यक्तिगत दुनिया का इतना सफल, सहज साधारणीकरण दुर्लभ है।</blockquote> | |
− | परम निर्मल मन से 'बच्चन' ने स्वीकार किया है कि "है चिता की राख कर में, माँगती सिन्दूर | + | ==लोकप्रियता== |
− | कवि ने नये सुख और सम्पन्नता के युग में प्रवेश किया। 'सतरंगिनी' (1945 ई.) और 'मिलन यामिनी' (1950 ई.) में 'बच्चन' के नये उल्लास भरे युग की सुन्दर गीतोपलब्धियाँ देखने-सुनने को मिलीं। | + | 'बच्चन' की कविता की लोकप्रियता का प्रधान कारण उसकी सहजता और संवेदनशील सरलता है और यह सहजता और सरल संवेदना उसकी अनुभूतिमूलक सत्यता के कारण उपलब्ध हो सकी। 'बच्चन' ने आगे चलकर जो भी किया हो, आरम्भ में उन्होंने केवल आत्मानुभूति, आत्मसाक्षात्कार और आत्माभिव्यक्ति के बल पर काव्य की रचना की। कवि के अहं की स्फीति ही काव्य की असाधारणता और व्यापकता बन गई। समाज की अभावग्रस्त व्यथा, परिवेश का चमकता हुआ खोखलापन, नियति और व्यवस्था के आगे व्यक्ति की असहायता और बेबसी 'बच्चन' के लिए सहज, व्यक्तिगत अनुभूति पर आधारित काव्य विषय थे। उन्होंने साहस और सत्यता के साथ सीधी-सादी भाषा और शैली में सहज ही कल्पनाशीलता और सामान्य बिम्बों से सजा-सँवार कर अपने नये गीत हिन्दी जगत को भेंट किये। हिन्दी जगत ने उत्साह से उनका स्वागत किया। [[चित्र:Bhagwati-charan-verma-harivanshrai-bachchan-amitabh-bachchan.jpg|thumb|300px|left|[[भगवतीचरण वर्मा]] के साथ हरिवंश राय बच्चन और [[अमिताभ बच्चन]]]] |
+ | <div style="border:thin solid #aaaaaa; margin:10px; float:right"> | ||
+ | {| class="bharattable-green" | ||
+ | |+प्रमुख कृतियाँ | ||
+ | |- | ||
+ | ! style="width:5%"|सन | ||
+ | ! style="width:15%"|कृतियाँ | ||
+ | |} | ||
+ | <div style="height: 400px; overflow:auto; overflow-x: hidden; float:right"> | ||
+ | {| class="bharattable-green" border="1" | ||
+ | |- | ||
+ | | style="width:5%"|[[1932]] | ||
+ | | style="width:15%"|तेरा हार | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1935]] | ||
+ | |[[मधुशाला]]<ref>'मधुशाला' का एक अंग्रेज़ी अनुवाद 'हाउस आफ़ वाइन' के नाम से लंदन से प्रकाशित हुआ (रूपान्तरकार-मार्जरी बोल्टन तथा रामस्वरूप व्यास</ref> | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1936]] | ||
+ | |मधुबाला | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1937]] | ||
+ | |मधुकलश | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1938]] | ||
+ | |निशा निमंत्रण | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1938]] | ||
+ | |ख़ैयाम की मधुशाला | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1939]] | ||
+ | |एकांत संगीत | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1943]] | ||
+ | |आकुल अंतर | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1945]] | ||
+ | |सतरंगिनी | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1946]] | ||
+ | |हलाहल | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1946]] | ||
+ | |बंगाल का काव्य | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1948]] | ||
+ | |खादी के फूल | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1948]] | ||
+ | |सूत की माला | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1950]] | ||
+ | |मिलन यामिनी | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1955]] | ||
+ | |प्रणय पत्रिका | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1957]] | ||
+ | |धार के इधर उधर | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1958]] | ||
+ | |आरती और अंगारे | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1958]] | ||
+ | |बुद्ध और नाचघर | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1961]] | ||
+ | |त्रिभंगिमा | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1962]] | ||
+ | |चार खेमे चौंसठ खूंटे | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1965]] | ||
+ | |दो चट्टानें | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1967]] | ||
+ | |बहुत दिन बीते | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1968]] | ||
+ | |कटती प्रतिमाओं की आवाज़ | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1969]] | ||
+ | |उभरते प्रतिमानों के रूप | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1973]] | ||
+ | |जाल समेटा | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1934]] | ||
+ | |बचपन के साथ क्षण भर | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1938]] | ||
+ | |खय्याम की मधुशाला | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1953]] | ||
+ | |सोपान | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1957]] | ||
+ | |मैकबेथ | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1958]] | ||
+ | |जनगीता | ||
+ | |- | ||
+ | | [[1959]] | ||
+ | |ओथेलो | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1959]] | ||
+ | |उमर खय्याम की रुबाइयाँ | ||
+ | |- | ||
+ | | [[1960]] | ||
+ | |कवियों के सौम्य संत पंत | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1960]] | ||
+ | |आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि सुमित्रानंदन पंत | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1961]] | ||
+ | |आधुनिक कवि 7 | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1961]] | ||
+ | |नेहरू राजनीतिक जीवनचित्र | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1962]] | ||
+ | |नये पुराने झरोखे | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1964]] | ||
+ | |अभिनव सोपान | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1964]] | ||
+ | |चौसठ रूसी कविताएँ | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1968]] | ||
+ | |डब्लू बी यीट्स एंड ऑकल्टिज़्म | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1968]] | ||
+ | |मरकट द्वीप का स्वर | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1966]] | ||
+ | |नागर गीत | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1967]] | ||
+ | |बचपन के लोकप्रिय गीत | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1969]] | ||
+ | |हैमलेट | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1970]] | ||
+ | |भाषा अपनी भाव पराये | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1970]] | ||
+ | |पंत के सौ पत्र | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1971]] | ||
+ | |प्रवास की डायरी | ||
+ | |- | ||
+ | | [[1973]] | ||
+ | |टूटी छूटी कड़ियां | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1981]] | ||
+ | |मेरी कविताई की आधी सदी | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1981]] | ||
+ | |सोहं हंस | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1982]] | ||
+ | |आठवें दशक की प्रतिनिधी श्रेष्ठ कवितायें | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1984]] | ||
+ | |मेरी श्रेष्ठ कविताएँ | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1969]] | ||
+ | |क्या भूलूं क्या याद करूं | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1970]] | ||
+ | |नीड़ का निर्माण फिर | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1977]] | ||
+ | |बसेरे से दूर | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1965]] | ||
+ | |दशद्वार से सोपान तक | ||
+ | |- | ||
+ | |[[1983]] | ||
+ | |बच्चन रचनावली के नौ खण्ड | ||
+ | |} | ||
+ | </div></div> | ||
+ | कवि ने नये सुख और सम्पन्नता के युग में प्रवेश किया। 'सतरंगिनी' ([[1945]] ई.) और 'मिलन यामिनी' ([[1950]] ई.) में 'बच्चन' के नये उल्लास भरे युग की सुन्दर गीतोपलब्धियाँ देखने-सुनने को मिलीं। | ||
==आत्मकेन्द्रित कवि== | ==आत्मकेन्द्रित कवि== | ||
− | 'बच्चन' एकान्त आत्मकेन्द्रित कवि हैं, इसी कारण उनकी वे रचनाएँ, जो सहज स्फूर्त नहीं हैं, उदाहरण के लिए बंगाल के काल और महात्मा गांधी की हत्या पर लिखी कविताएँ | + | 'बच्चन' एकान्त आत्मकेन्द्रित कवि हैं, इसी कारण उनकी वे रचनाएँ, जो सहज स्फूर्त नहीं हैं, उदाहरण के लिए 'बंगाल के काल' और [[महात्मा गांधी]] की हत्या पर लिखी कविताएँ केवल नीरस ही नहीं सर्वथा कवित्व रहित हो गई हैं। स्वानुभूति का कवि यदि अनुभूति के बिना कविता लिखता है तो उसे सफलता तभी मिल सकती है, जबकि उसकी रचना का विचार तत्त्व या शिल्प उसे सामान्य तुकबंदी से ऊपर उठा सके-और विचारतत्त्व और शिल्प 'बच्चन' के काव्य में अपेक्षाकृत क्षीण और अशक्त हैं। प्रबल काव्यानुभूति के क्षण विरल होते हैं और 'बच्चन' ने बहुत अधिक लिखा है। यह अनिवार्य था कि उनकी उत्तर काल की अधिकांश रचनाएँ अत्यन्त सामान्य कोटि की पद्यकृतियाँ होकर रह जातीं। उन्होंने काव्य के शिल्प में अनेक प्रयोग किये हैं, पर वे प्रयोग अधिकतर उर्दू कवियों के तरह-तरह की बहरों में तरह-तरह की 'ज़मीन' पर नज़्म कहने की चेष्टाओं से अधिक महत्त्व के नहीं हो पाये। |
− | == | + | ==रोचक प्रसंग== |
− | + | उमर ख़य्याम की रुबाइयों का हरिवंशराय बच्चन द्वारा किया गया अनुवाद एक भावभूमि, एक दर्शन और एक मानवीय संवेदना का परिचय देता है। बच्चनजी ने इस अनुवाद के साथ एक महत्त्वपूर्ण लम्बी भूमिका भी लिखी थी, उसके कुछ अंश इस प्रकार से हैं- | |
− | + | ||
− | + | उमर ख़य्याम के नाम से मेरी पहली जान-पहचान की एक बड़ी मज़ेदार कहानी है। उमर ख़य्याम का नाम मैंने आज से लगभग 25 बरस हुए जब जाना था, उस समय मैं वर्नाक्यूलर अपर प्राइमरी के तीसरे या चौथे दरजे में रहा हूँगा। हमारे पिताजी '[[सरस्वती (पत्रिका)|सरस्वती]]' मंगाया करते थे। पत्रिका के आने पर मेरा और मेरे छोटे भाई का पहला काम यह होता था कि उसे खोलकर उसकी तस्वीरों को देख डालें। उन दिनों रंगीन तस्वीर एक ही छपा करती थी, पर सादे चित्र, फ़ोटो इत्यादि कई रहते थे। तस्वीरों को देखकर हम बड़ी उत्सुकता से उस दिन की बाट देखने लगते थे, जब पिताजी और उनकी मित्र-मंडली इसे पढ़कर अलग रख दें। ऐसा होते-होते दूसरे महीने की 'सरस्वती' आने का समय आ जाता था। उन लोगों के पढ़ चुकने पर हम दोनों भाई अपनी कैंची और चाकू लेकर 'सरस्वती' के साथ इस तरह जुट जाते थे, जैसे मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी मुर्दों के साथ। एक-एक करके सारी तस्वीरें काट लेते थे। तस्वीरें काट लेने के बाद पत्रिका का मोल हमको दो कौड़ी भी अधिक जान पड़ता। चित्रों के काटने में जल्दबाजी करने के लिए, अब तक याद है, पिताजी ने कई बार 'गोशमाली'<ref>कान उमेठना, लड़कों अथवा छोटे नौकरों को सज़ा देने के लिए उनके कान मलना।</ref> भी की थी। | |
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+ | उन्हीं दिनों की बात है, किसी महीने की 'सरस्वती' में एक रंगीन चित्र छपा था-एक बूढ़े [[मुस्लिम]] की तस्वीर थी, चेहरे से शोक टपकता था; नीचे छपा था-उमर ख़य्याम। रुबाइयात के किस भाव को दिखाने के लिए यह चित्र बनाया गया था, इसके बारे में कुछ नहीं कह सकता, इस समय चित्र की कोई बात याद नहीं है, सिवा इसके कि एक बूढ़ा मुस्लिम बैठा है और उसके चेहरे पर शोक की छाया है। हम दोनों भाइयों ने चित्र को साथ-ही-साथ देखा और नीचे पढ़ा 'उमर ख़य्याम'। मेरे छोटे भाई मुझसे पूछ पड़े, "भाई, उमर ख़य्याम क्या है?" अब मुझे भी नहीं मालूम था कि उमर ख़य्याम के क्या माने हैं। लेकिन मैं बड़ा ठहरा, मुझे अधिक जानना चाहिए। जो बात उसे नहीं मालूम है, वह मुझे मालूम है, यही दिखाकर तो मैं अपने बड़े होने की धाक उस पर जमा सकता था। मैं चूकने वाला नहीं था। मेरे गुरुजी ने यह मुझे बहुत पहले सिखा रखा था कि चुप बैठने से ग़लत जवाब देना अच्छा है। [[चित्र:Bhagwati-charan-verma-harivanshrai-bachchan.jpg|thumb|300px|[[भगवतीचरण वर्मा]] के 75वें जन्मदिवस पर हरिवंश राय बच्चन]] मैंने अपनी अक्ल दौड़ायी और चित्र देखते ही देखते बोल उठा, "देखो यह बूढ़ा कह रहा है-उमर ख़य्याम, जिसका अर्थ है 'उमर ख़त्याम', अर्थात उमर ख़तम होती है, यह सोचकर बूढ़ा अफ़सोस कर रहा है।" उन दिनों [[संस्कृत]] भी पढ़ा करता था। 'ख़य्याम' में कुछ 'क्षय' का आभास मिला होगा और उसी से कुछ ऐसा भाव मेरे मन में आया होगा। बात टली, मैंने मन में अपनी पीठ ठोंकी, हम और तस्वीरों को देखने में लग गये। पर छोटे भाई को आगे चलकर जीवन का ऐसा क्षेत्र चुनना था, जहाँ हर बात को केवल ठीक ही ठीक जानने की ज़रूरत होती है। जहाँ कल्पना, अनुमान या कयास के लिए सुई की नोक के बराबर भी जगह नहीं है। लड़कपन से ही उनकी आदत हर बात को ठीक-ठीक जानने की ओर रहा करती थी। उन्हें कुछ ऐसा आभास हुआ कि मैं बेपर उड़ा रहा हूँ। शाम को पिताजी से पूछ बैठे। पिताजी ने जो कुछ बतलाया उसे सुनकर मैं झेंप गया। मेरी झेंप को और अधिक बढ़ाने के लिए छोटे भाई बोल उठे, "पर भाई तो कहते हैं कि यह बूढ़ा कहता है कि उमर ख़तम होती है-उमर ख़य्याम यानी उमर ख़त्याम।" पिताजी पहले तो हँसे, पर फिर गम्भीर हो गये; मुझसे बोले, "तुम ठीक कहते हो, बूढ़ा सचमुच यही कहता है।" उस दिन मैंने यही समझा कि पिताजी ने मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह दिया है, वास्तव में मेरी सूझ ग़लत थी। | ||
+ | उमर ख़य्याम की वह तस्वीर बहुत दिनों तक मेरे कमरे की दीवार पर टंगी रही। जिस दुनिया में न जाने कितनी सजीव तस्वीरें दो दिन चमककर ख़ाक में मिल जाती हैं, उसमें उमर ख़य्याम की निर्जीव तस्वीर कितने दिनों तक अपनी हस्ती बनाये रख सकती थी! उमर ख़य्याम की तस्वीर तो मिट गयी पर मेरे [[हृदय]] पर एक अमिट छाप छोड़ गयी। उमर ख़य्याम और उमर ख़तम होती है, यह दोनों बात मेरे मन में एक साथ जुड़ गयीं। तब से जब कभी भी मैंने 'उमर ख़य्याम' का नाम सुना या लिया, मेरे हृदय में वही टुकड़ा, 'उमर ख़तम होती है' गूज उठा। यह तो मैंने बाद में जाना कि अपनी ग़लत सूझ में भी मैंने इन दो बातों में एक बिल्कुल ठीक सम्बन्ध बना लिया था। | ||
+ | ==काव्य भाषा की गरिमा== | ||
+ | सामान्य बोलचाल की [[भाषा]] को काव्य भाषा की गरिमा प्रदान करने का श्रेय निश्चय ही सर्वाधिक 'बच्चन' का ही है। इसके अतिरिक्त उनकी लोकप्रियता का एक कारण उनका काव्य पाठ भी रहा है। [[हिन्दी]] में कवि सम्मेलन की परम्परा को सुदृढ़ और जनप्रिय बनाने में 'बच्चन' का असाधारण योग है। इस माध्यम से वे अपने पाठकों-श्रोताओं के और भी निकट आ गये। [[कविता]] के अतिरिक्त 'बच्चन' ने कुछ समीक्षात्मक निबन्ध भी लिखे हैं, जो गम्भीर अध्ययन और सुलझे हुए विचार प्रतिपादन के लिए पठनीय हैं। उनके शेक्सपीयर के नाटकों के अनुवाद और 'जनगीता' के नाम से प्रकाशित [[दोहा|दोहे]]-[[चौपाई|चौपाइयों]] में '[[गीता|भगवद गीता]]' का उल्था 'बच्चन' के साहित्यिक कृतित्व के विशेषतया उल्लेखनीय या स्मरणीय अंग माने जायेंगे या नहीं, इसमें संदेह है। | ||
+ | ==सम्मान और पुरस्कार== | ||
+ | हरिवंश राय बच्चन को उनकी कृति 'दो चट्टाने' को [[1968]] में हिन्दी कविता के लिए '[[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]]' से सम्मानित किया गया था। उन्हें 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के 'कमल पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया। बिड़ला फाउन्डेशन ने उनकी आत्मकथा के लिये उन्हें [[सरस्वती सम्मान]] दिया था। [[1955]] में [[इंदौर]] के 'होल्कर कॉलेज' के [[हिन्दी]] विभाग के अध्यक्ष डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन ने हरिवंश राय बच्चन को कवि सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया था। हरिवंश राय बच्चन को भारत सरकार द्वारा सन् [[1976]] में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में [[पद्म भूषण]] से सम्मानित किया गया था। | ||
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हरिवंश राय बच्चन (अंग्रेज़ी: Harivansh Rai Bachchan, जन्म: 27 नवंबर, 1907; मृत्यु: 18 जनवरी, 2003) हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध कवि और लेखक थे। इनकी प्रसिद्धि इनकी कृति 'मधुशाला' के लिये अधिक है। हरिवंश राय बच्चन के पुत्र अमिताभ बच्चन भारतीय सिनेमा जगत के प्रसिद्ध सितारे हैं।
जीवन परिचय
27 नवंबर, 1907 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में जन्मे हरिवंश राय बच्चन हिन्दू कायस्थ परिवार से संबंध रखते हैं। यह 'प्रताप नारायण श्रीवास्तव' और 'सरस्वती देवी' के बड़े पुत्र थे। इनको बाल्यकाल में 'बच्चन' कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ 'बच्चा या संतान' होता है। बाद में हरिवंश राय बच्चन इसी नाम से मशहूर हुए। 1926 में 19 वर्ष की उम्र में उनका विवाह 'श्यामा बच्चन' से हुआ जो उस समय 14 वर्ष की थी। लेकिन 1936 में श्यामा की टी.बी के कारण मृत्यु हो गई। पाँच साल बाद 1941 में बच्चन ने पंजाब की तेज़ीसूरी से विवाह किया जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थीं। इसी समय उन्होंने 'नीड़ का पुनर्निर्माण' जैसे कविताओं की रचना की। तेज़ीबच्चन से अमिताभ तथा अजिताभ दो पुत्र हुए। अमिताभ बच्चन एक प्रसिद्ध अभिनेता हैं। तेज़ीबच्चन ने हरिवंश राय बच्चन द्वारा 'शेक्सपीयर' के अनुदित कई नाटकों में अभिनय किया है।
शिक्षा
हरिवंश राय बच्चन की शिक्षा इलाहाबाद तथा 'कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों' में हुई। इन्होंने कायस्थ पाठशालाओं में पहले उर्दू की शिक्षा ली जो उस समय क़ानून की डिग्री के लिए पहला क़दम माना जाता था। इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी में एम. ए. और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. किया।
कार्यक्षेत्र
हरिवंश राय बच्चन अनेक वर्षों तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी विभाग में प्राध्यापक रहे। कुछ समय के लिए हरिवंश राय बच्चन आकाशवाणी के साहित्यिक कार्यक्रमों से सम्बद्ध रहे। फिर 1955 ई. में वह विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ होकर दिल्ली चले गये। विश्वविद्यालयों के दिनों में इन्होंने कैम्ब्रिज जाकर 1952-1954 ई. में अंग्रेज़ी कवि यीट्स पर शोध प्रबन्ध लिखा, जो काफ़ी प्रशंसित हुआ।
साहित्यिक परिचय
'बच्चन' की कविता के साहित्यिक महत्त्व के बारे में अनेक मत हैं। 'बच्चन' के काव्य की विलक्षणता उनकी लोकप्रियता है। यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि आज भी हिन्दी के ही नहीं, सारे भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में 'बच्चन' का स्थान सुरक्षित है। इतने विस्तृत और विराट श्रोतावर्ग का विरले ही कवि दावा कर सकते हैं।
सर्वग्राह्य और सर्वप्रिय
'बच्चन' की कविता इतनी सर्वग्राह्य और सर्वप्रिय है क्योंकि 'बच्चन' की लोकप्रियता मात्र पाठकों के स्वीकरण पर ही आधारित नहीं थी। जो कुछ मिला वह उन्हें अत्यन्त रुचिकर जान पड़ा। वे छायावाद के अतिशय सुकुमार्य और माधुर्य से, उसकी अतीन्द्रिय और अति वैयक्तिक सूक्ष्मता से, उसकी लक्षणात्मक अभिव्यंजना शैली से उकता गये थे। उर्दू की गज़लों में चमक और लचक थी, दिल पर असर करने की ताक़त थी, वह सहजता और संवेदना थी, जो पाठक या श्रोता के मुँह से बरबस यह कहलवा सकती थी कि, मैंने पाया यह कि गोया वह भी मेरे दिल में है। मगर हिन्दी कविता जनमानस और जन रुचि से बहुत दूर थी। 'बच्चन' ने उस समय (1935 से 1940 ई. के व्यापक खिन्नता और अवसाद के युग में) मध्यवर्ग के विक्षुब्ध, वेदनाग्रस्त मन को वाणी का वरदान दिया। उन्होंने सीधी, सादी, जीवन्त भाषा और सर्वग्राह्य, गेय शैली में, छायावाद की लाक्षणिक वक्रता की जगह संवेदनासिक्त अभिधा के माध्यम से, अपनी बात कहना आरम्भ किया और हिन्दी काव्य रसिक सहसा चौंक पड़ा, क्योंकि उसने पाया यह कि वह भी उसके दिल में है। 'बच्चन' ने प्राप्त करने के उद्देश्य से चेष्टा करके यह राह ढूँढ निकाली और अपनायी हो, यह बात नहीं है, वे अनायास ही इस राह पर आ गये। उन्होंने अनुभूति से प्रेरणा पायी थी, अनुभूति को ही काव्यात्मक अभिव्यक्ति देना उन्होंने अपना ध्येय बनाया।
पहला काव्य संग्रह
एक प्रकाशन 'तेरा हार' पहले भी प्रकाशित हो चुका था, पर 'बच्चन' का पहला काव्य संग्रह 1935 ई. में प्रकाशित 'मधुशाला' से ही माना जाता है। इसके प्रकाशन के साथ ही 'बच्चन' का नाम एक गगनभेदी रॉकेट की तरह तेज़ी से उठकर साहित्य जगत पर छा गया। 'मधुबाला', 'मधुशाला' और 'मधुकलश'-एक के बाद एक, ये तीनों संग्रह शीघ्र ही सामने आ गये हिन्दी में जिसे 'हालावाद' कहा गया है। ये उस काव्य पद्धति के धर्म ग्रन्थ हैं। उस काव्य पद्धति के संस्थापक ही उसके एकमात्र सफल साधक भी हुए, क्योंकि जहाँ 'बच्चन' की पैरोडी करना आसान है, वहीं उनका सच्चे अर्थ में, अनुकरण असम्भव है। अपनी सारी सहज सार्वजनीनता के बावजूद 'बच्चन' की कविता नितान्त वैयक्तिक, आत्म-स्फूर्त और आत्मकेन्द्रित है।
प्रेरणा
'बच्चन' ने इस 'हालावाद' के द्वारा व्यक्ति जीवन की सारी नीरसताओं को स्वीकार करते हुए भी उससे मुँह मोड़ने के बजाय उसका उपयोग करने की, उसकी सारी बुराइयों और कमियों के बावज़ूद जो कुछ मधुर और आनन्दपूर्ण होने के कारण गाह्य है, उसे अपनाने की प्रेरणा दी। उर्दू कवियों ने 'वाइज़' और 'बज़ा', मस्जिद और मज़हब, क़यामत और उक़वा की परवाह न करके दुनिया-ए-रंगों-बू को निकटता से, बार-बार देखने, उसका आस्वादन करने का आमंत्रण दिया है। ख़्याम ने वर्तमान क्षण को जानने, मानने, अपनाने और भली प्रकार इस्तेमाल करने की सीख दी है, और 'बच्चन' के 'हालावाद' का जीवन-दर्शन भी यही है। यह पलायनवाद नहीं है, क्योंकि इसमें वास्तविकता का अस्वीकरण नहीं है, न उससे भागने की परिकल्पना है, प्रत्युत्त वास्तविकता की शुष्कता को अपनी मनस्तरंग से सींचकर हरी-भरी बना देने की सशक्त प्रेरणा है। यह सत्य है कि 'बच्चन' की इन कविताओं में रूमानियत और क़सक़ है, पर हालावाद ग़म ग़लत करने का निमंत्रण है; ग़म से घबराकर ख़ुदक़शी करने का नहीं।
सर्वोत्कृष्ट काव्योपलब्धि
अपने जीवन की इस मंज़िल में 'बच्चन' अपने युवाकाल के आदर्शों और स्वप्नों के भग्नावशेषों के बीच से गुज़र रहे थे। पढ़ाई छोड़कर राष्ट्रीय आंदोलन में क़ूद पड़े थे। अब उस आंदोलन की विफलता का कड़वा घूँट पी रहे थे। एक छोटे से स्कूल में अध्यापक की नौकरी करते हुए वास्तविकता और आदर्श के बीच की गहरी खाई में डूब रहे थे। इस अभाव की दशा में पत्नी के असाध्य रोग की भयंकरता देख रहे थे, अनिवार्य विद्रोह के आतंक से त्रस्त और व्यथित थे। परिणामत: 'बच्चन' का कवि अधिकाधिक अंतर्मुखी होता गया। इस युग और इस 'मूड' की कविताओं के संग्रह 'निशा निमंत्रण' (1938 ई.) तथा 'एकान्त संगीत' 'बच्चन' की सम्भवत: सर्वोत्कृष्ट काव्योपलब्धि हैं। वैयक्तिक, व्यावहारिक जीवन में सुधार हुआ। अच्छी नौकरी मिली, 'नीड़ का निर्माण फिर' से करने की प्रेरणा और निमित्त की प्राप्ति हुई। 'बच्चन' ने अपने जीवन के इस नये मोड़ पर फिर आत्म-साक्षात्कार किया, मन को समझाते हुए पूछा,
"जो बसे हैं, वे उजड़ते हैं, प्रकृति के जड़ नियम से, पर किसी उजड़े हुए को फिर से बसाना कब मना है?[1]"
- परम निर्मल मन से 'बच्चन' ने स्वीकार किया है कि
"है चिता की राख कर में, माँगती सिन्दूर दुनियाँ"- व्यक्तिगत दुनिया का इतना सफल, सहज साधारणीकरण दुर्लभ है।
लोकप्रियता
'बच्चन' की कविता की लोकप्रियता का प्रधान कारण उसकी सहजता और संवेदनशील सरलता है और यह सहजता और सरल संवेदना उसकी अनुभूतिमूलक सत्यता के कारण उपलब्ध हो सकी। 'बच्चन' ने आगे चलकर जो भी किया हो, आरम्भ में उन्होंने केवल आत्मानुभूति, आत्मसाक्षात्कार और आत्माभिव्यक्ति के बल पर काव्य की रचना की। कवि के अहं की स्फीति ही काव्य की असाधारणता और व्यापकता बन गई। समाज की अभावग्रस्त व्यथा, परिवेश का चमकता हुआ खोखलापन, नियति और व्यवस्था के आगे व्यक्ति की असहायता और बेबसी 'बच्चन' के लिए सहज, व्यक्तिगत अनुभूति पर आधारित काव्य विषय थे। उन्होंने साहस और सत्यता के साथ सीधी-सादी भाषा और शैली में सहज ही कल्पनाशीलता और सामान्य बिम्बों से सजा-सँवार कर अपने नये गीत हिन्दी जगत को भेंट किये। हिन्दी जगत ने उत्साह से उनका स्वागत किया।
सन | कृतियाँ |
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कवि ने नये सुख और सम्पन्नता के युग में प्रवेश किया। 'सतरंगिनी' (1945 ई.) और 'मिलन यामिनी' (1950 ई.) में 'बच्चन' के नये उल्लास भरे युग की सुन्दर गीतोपलब्धियाँ देखने-सुनने को मिलीं।
आत्मकेन्द्रित कवि
'बच्चन' एकान्त आत्मकेन्द्रित कवि हैं, इसी कारण उनकी वे रचनाएँ, जो सहज स्फूर्त नहीं हैं, उदाहरण के लिए 'बंगाल के काल' और महात्मा गांधी की हत्या पर लिखी कविताएँ केवल नीरस ही नहीं सर्वथा कवित्व रहित हो गई हैं। स्वानुभूति का कवि यदि अनुभूति के बिना कविता लिखता है तो उसे सफलता तभी मिल सकती है, जबकि उसकी रचना का विचार तत्त्व या शिल्प उसे सामान्य तुकबंदी से ऊपर उठा सके-और विचारतत्त्व और शिल्प 'बच्चन' के काव्य में अपेक्षाकृत क्षीण और अशक्त हैं। प्रबल काव्यानुभूति के क्षण विरल होते हैं और 'बच्चन' ने बहुत अधिक लिखा है। यह अनिवार्य था कि उनकी उत्तर काल की अधिकांश रचनाएँ अत्यन्त सामान्य कोटि की पद्यकृतियाँ होकर रह जातीं। उन्होंने काव्य के शिल्प में अनेक प्रयोग किये हैं, पर वे प्रयोग अधिकतर उर्दू कवियों के तरह-तरह की बहरों में तरह-तरह की 'ज़मीन' पर नज़्म कहने की चेष्टाओं से अधिक महत्त्व के नहीं हो पाये।
रोचक प्रसंग
उमर ख़य्याम की रुबाइयों का हरिवंशराय बच्चन द्वारा किया गया अनुवाद एक भावभूमि, एक दर्शन और एक मानवीय संवेदना का परिचय देता है। बच्चनजी ने इस अनुवाद के साथ एक महत्त्वपूर्ण लम्बी भूमिका भी लिखी थी, उसके कुछ अंश इस प्रकार से हैं-
उमर ख़य्याम के नाम से मेरी पहली जान-पहचान की एक बड़ी मज़ेदार कहानी है। उमर ख़य्याम का नाम मैंने आज से लगभग 25 बरस हुए जब जाना था, उस समय मैं वर्नाक्यूलर अपर प्राइमरी के तीसरे या चौथे दरजे में रहा हूँगा। हमारे पिताजी 'सरस्वती' मंगाया करते थे। पत्रिका के आने पर मेरा और मेरे छोटे भाई का पहला काम यह होता था कि उसे खोलकर उसकी तस्वीरों को देख डालें। उन दिनों रंगीन तस्वीर एक ही छपा करती थी, पर सादे चित्र, फ़ोटो इत्यादि कई रहते थे। तस्वीरों को देखकर हम बड़ी उत्सुकता से उस दिन की बाट देखने लगते थे, जब पिताजी और उनकी मित्र-मंडली इसे पढ़कर अलग रख दें। ऐसा होते-होते दूसरे महीने की 'सरस्वती' आने का समय आ जाता था। उन लोगों के पढ़ चुकने पर हम दोनों भाई अपनी कैंची और चाकू लेकर 'सरस्वती' के साथ इस तरह जुट जाते थे, जैसे मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी मुर्दों के साथ। एक-एक करके सारी तस्वीरें काट लेते थे। तस्वीरें काट लेने के बाद पत्रिका का मोल हमको दो कौड़ी भी अधिक जान पड़ता। चित्रों के काटने में जल्दबाजी करने के लिए, अब तक याद है, पिताजी ने कई बार 'गोशमाली'[3] भी की थी।
उन्हीं दिनों की बात है, किसी महीने की 'सरस्वती' में एक रंगीन चित्र छपा था-एक बूढ़े मुस्लिम की तस्वीर थी, चेहरे से शोक टपकता था; नीचे छपा था-उमर ख़य्याम। रुबाइयात के किस भाव को दिखाने के लिए यह चित्र बनाया गया था, इसके बारे में कुछ नहीं कह सकता, इस समय चित्र की कोई बात याद नहीं है, सिवा इसके कि एक बूढ़ा मुस्लिम बैठा है और उसके चेहरे पर शोक की छाया है। हम दोनों भाइयों ने चित्र को साथ-ही-साथ देखा और नीचे पढ़ा 'उमर ख़य्याम'। मेरे छोटे भाई मुझसे पूछ पड़े, "भाई, उमर ख़य्याम क्या है?" अब मुझे भी नहीं मालूम था कि उमर ख़य्याम के क्या माने हैं। लेकिन मैं बड़ा ठहरा, मुझे अधिक जानना चाहिए। जो बात उसे नहीं मालूम है, वह मुझे मालूम है, यही दिखाकर तो मैं अपने बड़े होने की धाक उस पर जमा सकता था। मैं चूकने वाला नहीं था। मेरे गुरुजी ने यह मुझे बहुत पहले सिखा रखा था कि चुप बैठने से ग़लत जवाब देना अच्छा है।
मैंने अपनी अक्ल दौड़ायी और चित्र देखते ही देखते बोल उठा, "देखो यह बूढ़ा कह रहा है-उमर ख़य्याम, जिसका अर्थ है 'उमर ख़त्याम', अर्थात उमर ख़तम होती है, यह सोचकर बूढ़ा अफ़सोस कर रहा है।" उन दिनों संस्कृत भी पढ़ा करता था। 'ख़य्याम' में कुछ 'क्षय' का आभास मिला होगा और उसी से कुछ ऐसा भाव मेरे मन में आया होगा। बात टली, मैंने मन में अपनी पीठ ठोंकी, हम और तस्वीरों को देखने में लग गये। पर छोटे भाई को आगे चलकर जीवन का ऐसा क्षेत्र चुनना था, जहाँ हर बात को केवल ठीक ही ठीक जानने की ज़रूरत होती है। जहाँ कल्पना, अनुमान या कयास के लिए सुई की नोक के बराबर भी जगह नहीं है। लड़कपन से ही उनकी आदत हर बात को ठीक-ठीक जानने की ओर रहा करती थी। उन्हें कुछ ऐसा आभास हुआ कि मैं बेपर उड़ा रहा हूँ। शाम को पिताजी से पूछ बैठे। पिताजी ने जो कुछ बतलाया उसे सुनकर मैं झेंप गया। मेरी झेंप को और अधिक बढ़ाने के लिए छोटे भाई बोल उठे, "पर भाई तो कहते हैं कि यह बूढ़ा कहता है कि उमर ख़तम होती है-उमर ख़य्याम यानी उमर ख़त्याम।" पिताजी पहले तो हँसे, पर फिर गम्भीर हो गये; मुझसे बोले, "तुम ठीक कहते हो, बूढ़ा सचमुच यही कहता है।" उस दिन मैंने यही समझा कि पिताजी ने मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह दिया है, वास्तव में मेरी सूझ ग़लत थी।
उमर ख़य्याम की वह तस्वीर बहुत दिनों तक मेरे कमरे की दीवार पर टंगी रही। जिस दुनिया में न जाने कितनी सजीव तस्वीरें दो दिन चमककर ख़ाक में मिल जाती हैं, उसमें उमर ख़य्याम की निर्जीव तस्वीर कितने दिनों तक अपनी हस्ती बनाये रख सकती थी! उमर ख़य्याम की तस्वीर तो मिट गयी पर मेरे हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ गयी। उमर ख़य्याम और उमर ख़तम होती है, यह दोनों बात मेरे मन में एक साथ जुड़ गयीं। तब से जब कभी भी मैंने 'उमर ख़य्याम' का नाम सुना या लिया, मेरे हृदय में वही टुकड़ा, 'उमर ख़तम होती है' गूज उठा। यह तो मैंने बाद में जाना कि अपनी ग़लत सूझ में भी मैंने इन दो बातों में एक बिल्कुल ठीक सम्बन्ध बना लिया था।
काव्य भाषा की गरिमा
सामान्य बोलचाल की भाषा को काव्य भाषा की गरिमा प्रदान करने का श्रेय निश्चय ही सर्वाधिक 'बच्चन' का ही है। इसके अतिरिक्त उनकी लोकप्रियता का एक कारण उनका काव्य पाठ भी रहा है। हिन्दी में कवि सम्मेलन की परम्परा को सुदृढ़ और जनप्रिय बनाने में 'बच्चन' का असाधारण योग है। इस माध्यम से वे अपने पाठकों-श्रोताओं के और भी निकट आ गये। कविता के अतिरिक्त 'बच्चन' ने कुछ समीक्षात्मक निबन्ध भी लिखे हैं, जो गम्भीर अध्ययन और सुलझे हुए विचार प्रतिपादन के लिए पठनीय हैं। उनके शेक्सपीयर के नाटकों के अनुवाद और 'जनगीता' के नाम से प्रकाशित दोहे-चौपाइयों में 'भगवद गीता' का उल्था 'बच्चन' के साहित्यिक कृतित्व के विशेषतया उल्लेखनीय या स्मरणीय अंग माने जायेंगे या नहीं, इसमें संदेह है।
सम्मान और पुरस्कार
हरिवंश राय बच्चन को उनकी कृति 'दो चट्टाने' को 1968 में हिन्दी कविता के लिए 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया था। उन्हें 'सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार' तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के 'कमल पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया। बिड़ला फाउन्डेशन ने उनकी आत्मकथा के लिये उन्हें सरस्वती सम्मान दिया था। 1955 में इंदौर के 'होल्कर कॉलेज' के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन ने हरिवंश राय बच्चन को कवि सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित किया था। हरिवंश राय बच्चन को भारत सरकार द्वारा सन् 1976 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अँधेरे का दीपक -हरिवंश राय बच्चन
- ↑ 'मधुशाला' का एक अंग्रेज़ी अनुवाद 'हाउस आफ़ वाइन' के नाम से लंदन से प्रकाशित हुआ (रूपान्तरकार-मार्जरी बोल्टन तथा रामस्वरूप व्यास
- ↑ कान उमेठना, लड़कों अथवा छोटे नौकरों को सज़ा देने के लिए उनके कान मलना।
बाहरी कड़ियाँ
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