गीता 6:43

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गीता अध्याय-6 श्लोक-43 / Gita Chapter-6 Verse-43

प्रसंग-


अब पवित्र श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाले योगभ्रष्ट पुरुष की परिस्थिति का वर्णन करते हुए योग को जानने की इच्छा का महत्त्व बतलाते हैं-


तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहकिम् ।
यतते च ततो भूय: संसिद्धौ कुरुनन्दन ।।43।।



वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किये हुए बुद्धि संयोग को अर्थात् समबुद्धि रूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन[1] ! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्ति रूप सिद्धि के लिये पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है ।।43।।

Arjuna, he automatically regains in that birth the spiritual insight of his previous birth; and through that he strives, harder than ever, for perfection (in the form of god-realization).(43)


तत्र = वहां ; तम् = उस ; बुद्धिसंयोगम् = बुद्धि के संयोग को अर्थात् समत्व बुद्धि योग के संस्कारों को (अनायास ही) ; लभते = प्राप्त हो जाता है ; च = और ; पौर्वदेहिकम् = पहिले शरीर में साधन किये हुए ; कुरुनन्दन = हे कुरुनन्दन ; तत: = उसके प्रभाव से ; भूय: = फिर (अच्छी प्रकार) ; संसिद्धौ = भगवत्प्राप्ति के निमित्त ; यतते = यत्न करता है ;



अध्याय छ: श्लोक संख्या
Verses- Chapter-6

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पार्थ, भारत, धनंजय, पृथापुत्र, कुरुनन्दन, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी अर्जुन के सम्बोधन है।

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