गीता 6:9

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गीता अध्याय-6 श्लोक-9 / Gita Chapter-6 Verse-9

प्रसंग-


छठे श्लोक में यह बात कही गयी कि जिसने शरीर, इन्द्रिय और मनरूप आत्मा को जीत लिया है, वह आप ही अपना मित्र है। फिर सातवें श्लोक में उस 'जितात्मा' पुरुष के लिये परमात्मा को प्राप्त होना तथा आठवें और नवें श्लोकों में परमात्मा को प्राप्त पुरुष के लक्षण बतलाकर उसकी प्रशंसा की गयी। इस पर यह जिज्ञासा होती है कि जितात्मा पुरुष को परमात्मा की प्राप्ति के लिये क्या करना चाहिये, वह किस साधन से परमात्मा को शीघ्र प्राप्त कर सकता है, इसलिये ध्यान योग का प्रकरण आरम्भ करते हैं-


सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ।।9।।



सुहृद्, मित्र, वैरी, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष्य और बन्धु गणों में, धर्मात्माओं में और पापियों में भी समान भाव रखने वाला अत्यन्त श्रेष्ठ है ।।9।।

He who looks upon well-wishers and neutrals as well as mediators, friends and foes, relatives and objects of hatred, the virtuous and the sinful with the same eye, stand supreme. (9)


सुहृद् = सुहृद: मित्र = मित्र; अरि = बैरी; उदासीन = उदासीन; द्वेष्य = द्वेषी (और) बन्धुषु = बन्धुगणों में (तथा ); साधुषु = धर्मात्माओं में; च = और; पापेषु = पापियो में; अपि = भी; समबुद्धि: = समान भाव वाला है (वह ); विशिष्यते = अति श्रेंष्ठ है



अध्याय छ: श्लोक संख्या
Verses- Chapter-6

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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