गीता 6:6

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गीता अध्याय-6 श्लोक-6 / Gita Chapter-6 Verse-6

प्रसंग-


जिसने मन और इन्द्रियों सहित शरीर को जीत लिया है, वह आप ही अपना मित्र क्यों है, इस बात को स्पष्ट करने के लिये अब शरीर, इन्द्रिय और मनरूप आत्मा को वश में करने का फल बतलाते हैं-


बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित: ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।।6।।



जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है, उस जीवात्मा का तो वह आप ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीता गया है, उसके लिये वह आप ही शत्रु के सदृश शत्रुता में बर्तता है ।।6।।

One’s own self is the friend of the soul by whom the lower self (consisting of the mind, senses and body) has been conquered; even so the very self of him who has not conquered his lower self behaves antagonistically like an enemy. (6)


तस्य = उस; आत्मन: = जीवात्मा को (यह) आत्मा = आप; एव = ही; बन्धु: = मित्र है (कि); येन = जिस; आत्मना = जीवात्मा द्वारा; आत्मा = मन और इन्द्रियों सहित शरीर; जित: = जीता हुआ है; तु = और; अनात्मन: = जिसके द्वारा मन और इन्द्रियों सहित शरीर नहीं जीत गया है उसका (वह ); आत्मा = आप; एव = ही; शत्रुवत् = शत्रु के सदृश; शत्रुत्वे = शत्रुता में; बर्तेंत = बर्तता है



अध्याय छ: श्लोक संख्या
Verses- Chapter-6

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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