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मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकान्त स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरन्तर परमात्मा में लगावे ।।10।।  
मन और [[इन्द्रियाँ|इन्द्रियों]] सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकान्त स्थान में स्थित होकर [[आत्मा]] को निरन्तर परमात्मा में लगावे ।।10।।  


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05:57, 5 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-6 श्लोक-10 / Gita Chapter-6 Verse-10

प्रसंग-


जितात्मा पुरुष को ध्यान योग का साधन करने के लिये कहा गया। अब उस ध्यान योग का विस्तार-पूर्वक वर्णन करते हुए पहले स्थान और आसन का वर्णन करते हैं-


योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित: ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह: ।।10।।




मन और इन्द्रियों सहित शरीर को वश में रखने वाला, आशारहित और संग्रहरहित योगी अकेला ही एकान्त स्थान में स्थित होकर आत्मा को निरन्तर परमात्मा में लगावे ।।10।।

Living in seclusion all by himself , the Yogi who has controlled his mind and body, and is free from desires and void of possessions, should constantly engage his mind in meditation. (10)


यतचित्तात्मा = जिसका मन और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है ऐसा; निराशी: = वासनारहित (और ); अपरिग्रह: = संग्रहरहित; एकाकी = अकेला ही; रहसि = एकान्त स्थान में; स्थित: = स्थित हुआ; सततम् = निरन्तर; आत्मानम् = आत्मा को; युज्जीत: = परमेश्वर के ध्यान में लगावे



अध्याय छ: श्लोक संख्या
Verses- Chapter-6

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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