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06:25, 5 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-6 श्लोक-27 / Gita Chapter-6 Verse-27

प्रसंग-


परमात्मा का अभेद रूप से ध्यान करने वाले ब्रह्म भूत योगी की स्थिति बतलाकर, अब उसका फल बतलाते हैं-


प्रशान्तमनसं ह्रोनं योगिनं सुखमुत्तमम् ।
उपैति शान्तरजसं ब्रह्राभूतमकल्मषम् ।।27।।



क्योंकि जिसका मन भली प्रकार शान्त है, जो पाप से रहित है और जिसका रजोगुण शान्त हो गया है, ऐसे इस सच्चिदानन्दघन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए योगी को उत्तम आनन्द प्राप्त होता है ।।27।।

For the Yogi whose mind is perfectly serene who is sinless, whose passion is subdued, and who is identified with Brahma, the embodiment of truth, knowledge and bliss, supreme happiness comes as a matter of course. (27)


हि = क्योंकि; प्रशान्तमनसम् = जिसका मन अच्छी प्रकार शान्त है (और); अकल्मषम् = जो पाप से रहित है (और ); शान्तरजसम् = जिसका रजोगुण शान्तज हो गया ऐसे; एनम् = इस; ब्रह्मभूतम् = सच्चिदानन्द घन ब्रह्म के साथ एकीभाव हुए; योगिनम् = योगी को; उत्तमम् = अति उत्तम; सुखम् = आनन्द; उपैति = प्राप्त होता है



अध्याय छ: श्लोक संख्या
Verses- Chapter-6

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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