"गीता 6:45": अवतरणों में अंतर

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07:00, 5 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-6 श्लोक-45 / Gita Chapter-6 Verse-45

प्रसंग-


योगभ्रष्ट की गति का विषय समाप्त करके, अब भगवान् योगी की महिमा कहते हुए अर्जुन[1] को योगी बनने के लिये आज्ञा देते हैं-


प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष: ।
अनेकजन्मसंसिद्ध स्ततो याति परां गतिम् ।।45।।



परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाले योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कार बल से इसी जन्म में सिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है

The yogi, however, who diligently takes up the practice attains perfection in this very life with the help of latencies of many births, and being thoroughly purged of sin, forthwith reaches the supreme state..(45)


अनेकजन्मसंसिद्ध: = अनेक जन्मों से अन्त:करण की शुद्धिरूप सिद्धि को प्राप्त हुआ ; तु = और ; प्रयत्नात् = अति प्रयत्न से ; यतमान: = अभ्यास करने वाला ; योगी = योगी ; संशुद्धकिल्बिष: = संपूर्ण पापों से अच्छी प्रकार शुद्ध होकर ; तत: = उस साधन के प्रभाव से ; पराम् = परम ; गतिम् = गति को ; याति = प्राप्त होता है अर्थात् परमात्मा को प्राप्त होता है ;



अध्याय छ: श्लोक संख्या
Verses- Chapter-6

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

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