कबीर भक्ति आन्दोलन के एक उच्च कोटि के कवि, समाज सुधारक एवं संत माने जाते हैं। संत कबीर दास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे।
कबीरदास कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ झलकती है। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी।
समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग -युग के गुरु थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर साहित्य क्षेत्र में नव निर्माण किया था।
कबीरदास ने हिन्दू-मुसलमान का भेद मिटा कर हिन्दू-भक्तों तथा मुसलमान-फ़कीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयांगम कर लिया। कबीरदास अनपढ़ थे, इसलिए उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से बोले और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया।
कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी , सबद और साखी।
कबीरदास जी की भाषा सधुक्कड़ी अर्थात राजस्थानी और पंजाबी मिली खड़ी बोली है, पर ‘रमैनी’ और ‘सबद’ में गाने के पद हैं जिनमें काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली का भी व्यवहार है। .... और पढ़ें
सूरदास जी का जन्म 1478 ईस्वी में मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक गांव में हुआ था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जी के मतानुसार सूरदास का जन्म संवत 1540 विक्रम के सन्निकट और मृत्यु संवत 1620 विक्रम के आसपास मानी जाती है।
हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल में कृष्ण भक्ति के भक्त कवियों में महाकवि सूरदास का नाम सर्वोपरि है।
सूरदास जी वात्सल्य रस के सम्राट माने जाते हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसों का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है।
सूरदास जी के पिता श्री रामदास गायक थे। सूरदास जी के जन्मांध होने के विषय में भी मतभेद हैं। आगरा के समीप गऊघाट पर उनकी भेंट श्री वल्लभाचार्य से हुई और वे उनके शिष्य बन गए।
सूरदास जी अष्टछाप कवियों में एक थे। सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं- सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य-लहरी, नल-दमयन्ती और ब्याहलो।
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