आपके इस प्रभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा हैं ऐसा मानकर प्रेम से अथवा प्रमाद से भी मैंने 'हे कृष्ण[2] !', 'हे यादव !', 'हे सखे !', इस प्रकार जो कुछ बिना सोचे-समझे हठात् कहा है; और हे अच्युत ! आप जो मेरे द्वारा विनोद के लिये विहार, शय्या, आसन और भोजनादि में अकेले अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमानित किये गये हैं- वह सब अपराध अप्रमेय स्वरूप अर्थात् अचिन्त्य प्रभाव वाले आपसे मैं क्षमा करवाता हूँ ।।41-42।।
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The way in which I have importunately called out, either through intimacy or even through want of thought, “Ho Krishna ! Ho yadava ! Ho Comrade !” and so on, suspecting not this greatness of yours, and thinking you only to be a friend, and the way in which you have been slighted by me in jest, O sinless one while at play, resposing, sitting or at meals either alone or even in the presence of other- for all that I crave forgiveness from you, who are infinite. (41,42)
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