"गीता 11:55": अवतरणों में अंतर

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अनन्य भक्ति के द्वारा भगवान् को देखना, जानना और एकीभाव से प्राप्त करना सुलभ बतलाया जाने के कारण अनन्य भक्ति का स्वरूप जानने की आकांक्षा होने पर अब अनन्य भक्त के लक्षणों का वर्णन किया जाता है-  
अनन्य [[भक्ति]] के द्वारा भगवान् को देखना, जानना और एकीभाव से प्राप्त करना सुलभ बतलाया जाने के कारण अनन्य भक्ति का स्वरूप जानने की आकांक्षा होने पर अब अनन्य [[भक्त]] के लक्षणों का वर्णन किया जाता है-  
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हे <balloon link="अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर में जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, असक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूत प्राणियों में वैरभाव से रहित है- वह अनन्य भक्ति युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है ।।55।।  
हे [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, असक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूत प्राणियों में वैरभाव से रहित है- वह अनन्य भक्ति युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है ।।55।।
 
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य:  = जो पुरुष; मत्कर्मकृत् = केवल मेरे ही लिये (सब कुछ मेरा समझताहुआ) यज्ञ,  दान और तप आदि संपूर्ण कर्तव्यकर्मों को करनेवाले है(और); मत्परम: = मेरे परायण है अर्थात् मेरे को परम आश्रय और परम गति मानकर मेरी प्राप्ति के लिये तत्पर है (तथा); मभ्दक्त = मेरा भक्त है अर्थात् मेरे नाम गुण प्रभाव और रहस्य के श्रवण कीर्तन मनन ध्यान और पठनपाठनका प्रेमसहित निष्कामभावसे निरन्तर अभ्यास करनेवाला है(और); सगउवर्जित= आसक्तिरहित है अर्थात् स्त्री पुत्र और धनादि संपूर्ण सांसारिक पदार्थों में स्नेहरहित है(और); सर्वभूतेषु = संपूर्ण भूतप्राणियों में; निर्वैर: = वैरभाव से रहित है (ऐसा); स: = वह(अनन्य भक्तिवाला पुरुष); माम् = मेरे को(ही); एति = प्राप्त होता है  
य:  = जो पुरुष; मत्कर्मकृत् = केवल मेरे ही लिये (सब कुछ मेरा समझताहुआ) यज्ञ,  दान और तप आदि संपूर्ण कर्तव्यकर्मों को करनेवाले है(और); मत्परम: = मेरे परायण है अर्थात् मेरे को परम आश्रय और परम गति मानकर मेरी प्राप्ति के लिये तत्पर है (तथा); मभ्दक्त = मेरा भक्त है अर्थात् मेरे नाम गुण प्रभाव और रहस्य के श्रवण कीर्तन मनन ध्यान और पठनपाठनका प्रेमसहित निष्कामभावसे निरन्तर अभ्यास करने वाला है(और); सगउवर्जित= आसक्तिरहित है अर्थात् स्त्री पुत्र और धनादि संपूर्ण सांसारिक पदार्थों में स्नेहरहित है(और); सर्वभूतेषु = संपूर्ण भूतप्राणियों में; निर्वैर: = वैरभाव से रहित है (ऐसा); स: = वह(अनन्य भक्तिवाला पुरुष); माम् = मेरे को(ही); एति = प्राप्त होता है  
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13:52, 6 सितम्बर 2017 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-11 श्लोक-55 / Gita Chapter-11 Verse-55

प्रसंग-


अनन्य भक्ति के द्वारा भगवान् को देखना, जानना और एकीभाव से प्राप्त करना सुलभ बतलाया जाने के कारण अनन्य भक्ति का स्वरूप जानने की आकांक्षा होने पर अब अनन्य भक्त के लक्षणों का वर्णन किया जाता है-


मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: संग्ङवर्जित: ।
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव ।।55।।



हे अर्जुन[1] ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, असक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूत प्राणियों में वैरभाव से रहित है- वह अनन्य भक्ति युक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है ।।55।।

Arjuna, he who performs all his duties for my sake, depends on me, is devoted to me; has no attachment, and is free from malice towards all beings, reaches me. (55)


य: = जो पुरुष; मत्कर्मकृत् = केवल मेरे ही लिये (सब कुछ मेरा समझताहुआ) यज्ञ, दान और तप आदि संपूर्ण कर्तव्यकर्मों को करनेवाले है(और); मत्परम: = मेरे परायण है अर्थात् मेरे को परम आश्रय और परम गति मानकर मेरी प्राप्ति के लिये तत्पर है (तथा); मभ्दक्त = मेरा भक्त है अर्थात् मेरे नाम गुण प्रभाव और रहस्य के श्रवण कीर्तन मनन ध्यान और पठनपाठनका प्रेमसहित निष्कामभावसे निरन्तर अभ्यास करने वाला है(और); सगउवर्जित= आसक्तिरहित है अर्थात् स्त्री पुत्र और धनादि संपूर्ण सांसारिक पदार्थों में स्नेहरहित है(और); सर्वभूतेषु = संपूर्ण भूतप्राणियों में; निर्वैर: = वैरभाव से रहित है (ऐसा); स: = वह(अनन्य भक्तिवाला पुरुष); माम् = मेरे को(ही); एति = प्राप्त होता है



अध्याय ग्यारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-11

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10, 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26, 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41, 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

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