गीता 11:8

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गीता अध्याय-11 श्लोक-8 / Gita Chapter-11 Verse-8

प्रसंग-


इस प्रकार तीनों श्लोंकों में बार-बार अपना अद्भुत रूप देखने के लिये आज्ञा देने पर भी जब अर्जुन भगवान् के रूप को नहीं देख सके तब उसके न देख सकने के कारण को जानने वाले अन्तर्यामी भगवान् <balloon link="index.php?title=अर्जुन" title="महाभारत के मुख्य पात्र है। पाण्डु एवं कुन्ती के वह तीसरे पुत्र थे । अर्जुन सबसे अच्छा धनुर्धर था। वो द्रोणाचार्य का शिष्य था। द्रौपदी को स्वयंवर मे जीतने वाला वो ही था। ¤¤¤ आगे पढ़ने के लिए लिंक पर ही क्लिक करें ¤¤¤">अर्जुन</balloon> को दिव्य दृष्टि देने की इच्छा करके कहने लगे –


न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।
दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम् ।।8।।



परन्तु मुझको तू इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में नि:संदेह समर्थ नहीं है; इसी में मैं तुझे दिव्य अर्थात् अलौकिक चक्षु देता हूँ; उससे तू मेरी ईश्वरीय योग शक्ति को देख ।।8।।

But surely you cannot see Me with these human eyes of yours: therefore; I vouchsafe to you the divine eye. With this you behold My divine power of yoga. (8)


तु = परन्तु; माम् = मेरे को; स्वचक्षुषा = अपने प्राकृत नेत्रोंद्वारा; द्रष्टुम् = देखने को; एव = नि:सन्देह; न शक्यसे = समर्थनही है; (अतJ = इसीसे(मैं); ते = तेरे लिये; दिव्यम् = दिव्य अर्थात् अलौकिक; ददामि = देताहूं; (तेन) = उससे (तूं); मे = मेरे; ऐश्वरम् = प्रभावको(और); योगम् = योगशक्तको; पश्य = देख



अध्याय ग्यारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-11

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10, 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26, 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41, 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51 | 52 | 53 | 54 | 55

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)