गीता 13:3

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गीता अध्याय-13 श्लोक-3 / Gita Chapter-13 Verse-3

प्रसंग-


क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का पूर्ण ज्ञान हो जाने पर संसार-चक्र का नाश हो जाता है और परमात्मा की प्राप्ति होती है, अतएव 'क्षेत्र' और 'क्षेत्रज्ञ' के स्वरूप आदि को भली-भाँति विभागपूर्वक समझाने के लिये भगवान् कहते हैं-


तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यद्विकारि यतश्च यत् ।
स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे श्रृणु ।।3।।



वह क्षेत्र जो और जैसा है तथा जिन विकारों वाला है, और जिस कारण से जो हुआ है; तथा वह क्षेत्रज्ञ भी जो और जिस प्रभाव वाला है- वह सब संक्षेप में मुझसे सुन ।।3।।

What that Ksetra is and what it is like; and also what are its evolutes, again, whence is what, and also finally who that ksetrajna is and what is his glory hear all this from me in a nutshell. (3)


तत् = वह ; क्षेत्रम् = क्षेत्र ; यत् = जो है ; च =और ; याद्य्क् = जैसा है ; च = तथा ; यद्धिकारि = जिन विकारों वाला है ; च =और ; यत: = जिस करण से ; यत् = जो हुआ है ; च = तथा ; स: = वह (क्षेत्रज्ञ) ; च = भी ; य: = जो है (और) ; यत्प्रभाव: = जिस प्रभाववाला है ; तत् = वह सब ; समासेन = संक्षेप से ; मे = मेरे से ; श्रृणु = सुन ;



अध्याय तेरह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-13

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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