तब रांम रांम कहि गावैगा। ररंकार रहित सबहिन थैं, अंतरि मेल मिलावैगा।। टेक।। लोहा सम करि कंचन समि करि, भेद अभेद समावैगा। जो सुख कै पारस के परसें, तो सुख का कहि गावैगा।।1।। गुर प्रसादि भई अनभै मति, विष अमृत समि धावैगा। कहै रैदास मेटि आपा पर, तब वा ठौरहि पावैगा।।2।।