सब कछु करत न कहु कछु कैसैं। गुन बिधि बहुत रहत ससि जैसें।। टेक।। द्रपन गगन अनींल अलेप जस, गंध जलध प्रतिब्यंबं देखि तस।।1।। सब आरंभ अकांम अनेहा, विधि नषेध कीयौ अनकेहा।।2।। इहि पद कहत सुनत नहीं आवै, कहै रैदास सुकृत को पावै।।3।।