नरहरि चंचल मति मोरी। कैसैं भगति करौ रांम तोरी।। टेक।। तू कोहि देखै हूँ तोहि देखैं, प्रीती परस्पर होई। तू मोहि देखै हौं तोहि न देखौं, इहि मति सब बुधि खोई।।1।। सब घट अंतरि रमसि निरंतरि, मैं देखत ही नहीं जांनां। गुन सब तोर मोर सब औगुन, क्रित उपगार न मांनां।।2।। मैं तैं तोरि मोरी असमझ सों, कैसे करि निसतारा। कहै रैदास कृश्न करुणांमैं, जै जै जगत् अधारा।।3।।