हे भरत श्रेष्ठ ! अब तीन प्रकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। जिस सुख में साधक मनुष्य भजन, ध्यान और सेवादि के अभ्यास से रमण करता है और जिससे दुखों के अन्त को प्राप्त हो जाता है- ।।36।।
जो ऐसा सुख है, वह आरम्भकाल में यद्यपि विष के तुल्य प्रतीत होता है, परंतु परिणाम में अमृत के तुल्य है; इसलिये वह परमात्मविषयक बुद्धि के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है ।।37।।
|
Now hear from Me the threefold joy too. That is which the striver finds enjoyments through practice of adoration, meditation and service to God etc., and whereby he reaches the end of sorrow,—such a joy, though appearing as poison in the beginning, tastes like nectar in the end; hence that joy, born as it is of the placidity of mind brought about by meditation on God, has been declared as happiness in the mode of goodness. (36-37)
|