अतएव हे कुन्ती[1] पुत्र ! दोष युक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिये, क्योंकि धूएँ से अग्नि[2] की भाँति सभी कर्म किसी न किसी दोष से आवृत हैं ।।48।।
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Therefore, Arjuna, one snould not abandon one's innate duty, even though-it may be tainted with blemish; for even as fire is enveloped in smoke, all under takings are clouded with demerit (48)
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