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प्रसंग-
इस प्रकार गीताशास्त्र की स्मृति का महत्त्व बतलाकर अब संजय[1] अपनी स्थिति का वर्णन करते हुए भगवान् के विराट् स्वरूप की स्मृति का महत्त्व दिखलाते हैं।
तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे: । विस्मयो मे महाराजन्हृष्यामि च पुन: पुन: ।।77।।
हे राजन् ! श्रीहरि के उस अत्यन्त विलक्षण रूप को पुन:-पुन: स्मरण करके मेरे चित्त में महान् आश्चर्य होता है और मैं बार-बार हर्षित हो रहा हूँ ।।77।।
Remembering also, again and again, that most wonderful Form of Sri Krishna, great is my wonder and I rejoice over and over again.(77)
राजन् = हे राजन्; हरे: = श्रीहरि के; तत् = उस; अति = अति; अद्भुतम् = अद्भुत; रूपम् = रूप को; संस्मृत्य = पुन: पुन: स्मरण करके; मे = मेरे; महान् = महान; विस्मय: = आश्चर्य; पुन: पुन: = बारम्बार; हृष्यामि = हर्षित होता हूं
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