इस प्रकार उपर्युक्त दो श्लोकों में गीताशास्त्र का श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवद्भक्तों में विस्तार करने का फल और माहात्म्य बतलाया; किन्तु सभी मनुष्य इस कार्य को नहीं कर सकते, इसका अधिकारी तो कोई विरला ही होता है। इसलिये अब गीताशास्त्र के अध्ययन का माहात्म्य बतलाते हैं
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो: । ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति: ।।70।।
जो पुरुष इस धर्ममय हम दोनों के संवाद रूप गीताशास्त्र को पढ़ेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा- ऐसा मेरा मत है ।।70।।
And I declare that he who studies this sacred conversation worships Me by his intelligence.(70)
च = तथा (हे अर्जुन) ; य: = जो (पुरुष) ; इमम् = इस ; धर्म्यम् = धर्ममय ; आवयों: = हम दोनों के ; संवादम = संवादरूप गीताशास्त्रको ; अध्येष्यते = नित्य पाठ करेगा ; तेन = उसके द्वारा ; अहम् = मैं ; ज्ञानयज्ञेन = ज्ञानयज्ञसे ; इष्ट: = पूजित ; स्याम् = होऊंगा ; इति = ऐसा ; मे = मेरा ; मति: = मत है