"गीता 18:56": अवतरणों में अंतर

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इस प्रकार [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> को जिज्ञासा के अनुसार त्याग का यानी कर्मयोग का और संन्यास का यानी सांख्ययोग का तत्त्व अलग-अलग समझाकर यहाँ तक उस प्रकरण को समाप्त कर दिया; किन्तु इस वर्णन में भगवान् ने यह बात नहीं कही कि दोनों में से तुम्हारे लिये अमुक साधन कर्तव्य है, अतएव अर्जुन को [[भक्ति]] प्रधान कर्म योग ग्रहण कराने के उद्देश्य से अब भक्ति प्रधान कर्मयोग की महिमा कहते हैं-  
इस प्रकार [[अर्जुन]]<ref>[[महाभारत]] के मुख्य पात्र है। वे [[पाण्डु]] एवं [[कुन्ती]] के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। [[द्रोणाचार्य]] के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। [[द्रौपदी]] को [[स्वयंवर]] में भी उन्होंने ही जीता था।</ref> को जिज्ञासा के अनुसार त्याग का यानी कर्मयोग का और सन्न्यास का यानी सांख्ययोग का तत्त्व अलग-अलग समझाकर यहाँ तक उस प्रकरण को समाप्त कर दिया; किन्तु इस वर्णन में भगवान् ने यह बात नहीं कही कि दोनों में से तुम्हारे लिये अमुक साधन कर्तव्य है, अतएव अर्जुन को [[भक्ति]] प्रधान कर्म योग ग्रहण कराने के उद्देश्य से अब भक्ति प्रधान कर्मयोग की महिमा कहते हैं-  
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13:53, 2 मई 2015 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-18 श्लोक-56 / Gita Chapter-18 Verse-56

प्रसंग-


इस प्रकार अर्जुन[1] को जिज्ञासा के अनुसार त्याग का यानी कर्मयोग का और सन्न्यास का यानी सांख्ययोग का तत्त्व अलग-अलग समझाकर यहाँ तक उस प्रकरण को समाप्त कर दिया; किन्तु इस वर्णन में भगवान् ने यह बात नहीं कही कि दोनों में से तुम्हारे लिये अमुक साधन कर्तव्य है, अतएव अर्जुन को भक्ति प्रधान कर्म योग ग्रहण कराने के उद्देश्य से अब भक्ति प्रधान कर्मयोग की महिमा कहते हैं-


सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रय: ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ।।56।।



मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है ।।56।।

Though engaged in all kinds of activities, My devotee, under My protection, reaches the eternal and imperishable abode by My grace.(56)


मद्वच्यपाश्रय: = मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी (तो) ; सर्वकर्माणि = संपूर्ण कर्मोंको ; सदा = सदा ; कुर्वाण: = करता हुआ ; अपि = भी ; मत्प्रसादात् = मेरी कृपासे; शाश्र्वतम् = सनातन ; अव्ययम् = अविनाशी ; पदम् = परमपदको ; अवाप्रोति = प्राप्त हो जाता है



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत के मुख्य पात्र है। वे पाण्डु एवं कुन्ती के तीसरे पुत्र थे। सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में वे प्रसिद्ध थे। द्रोणाचार्य के सबसे प्रिय शिष्य भी वही थे। द्रौपदी को स्वयंवर में भी उन्होंने ही जीता था।

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