गीता 18:54

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गीता अध्याय-18 श्लोक-54 / Gita Chapter-18 Verse-54

प्रसंग-


इस प्रकार अंग-प्रत्यंगों सहित संन्यास का यानी सांख्ययोग स्वरूप बतलाकर अब उस साधन द्वारा ब्रह्मभाव को प्राप्त हुए योगी के लक्षण और उसे ज्ञानयोग की परानिष्ठा रूप परा भक्ति का प्राप्त होना बतलाते हैं-


ब्रह्राभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति ।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्ति लभते पराम् ।।54।।



फिर वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित प्रसन्न मन वाला योगी न तो किसी के लिये शोक करता है और न किसी की आकांक्षा ही करता है। ऐसा समस्त प्राणियों में समभाव वाला योगी मेरी परा भक्ति को प्राप्त हो जाता है ।।54।।

Established in identity with Brahma (who in Truth, Consciousness and Bliss solidified); and cheerful in mind, the Sankhyayogi no longer grieves nor craves for anything. The same to all beings, such a Yogi attains supreme devotion to Me.(54)


ब्रह्मभूत: = सच्चिदानन्दघन ब्रह्म में एकीभाव से स्थित हुआ ; प्रसन्नात्मा = प्रसन्नचित्तवाला पुरुष ; काक्ष्डति = आकाक्ष्डा (ही) करता है ; सर्वेषु = सब ; भूतेषु = भूतों में ; न = न (तो किसी वस्तु के लिये) ; शोचति = शोक करता है (और) ; न = न (किसी की ) ; सम: = समभाव हुआ ; पराम् मभ्दक्तिम् = मेरी पराभक्ति को ; लभते = प्राप्त होता है



अध्याय अठारह श्लोक संख्या
Verses- Chapter-18

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14 | 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36, 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43 | 44 | 45 | 46 | 47 | 48 | 49 | 50 | 51, 52, 53 | 54 | 55 | 56 | 57 | 58 | 59 | 60 | 61 | 62 | 63 | 64 | 65 | 66 | 67 | 68 | 69 | 70 | 71 | 72 | 73 | 74 | 75 | 76 | 77 | 78

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

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